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प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद
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१.६१ विश्लेष—(शब्दशः) वियोग संयुक्त व्यञ्जन में से दो अवयवों के बीच में स्वर डालकर व्वञ्जन पृथक् करना यानी संयुक्त व्यञ्जन दूर करना यानी विश्लेष । इसको ही स्वर भक्ति ऐसा भी कहा जाता है। स्वर भक्ति के लिए सूत्र २.१००११५ देखिए ।
१.६३ ओप्पेइ-मराठी में:-ओपणे । १.५५ नत्रः परेन के आगे । संस्कृत में नञ् (न) यह निषेधदर्शक अव्यय है ।
१.६७ तलवेण्टं... .."तालवोण्टं--सूत्र १.१३९, २.३१ देखिए । बाम्हणो, पुवाण्हो-यहाँ म्ह इस संयुक्त व्यञ्जन के पीछे आ दीर्घ स्वर ह्रस्व न होते, वह वैसा ही रहा हुआ दिखता है। उसका कारण प्राकृत में व्यवहारतः म्ह संयुक्त व्यञ्जन न होने, (ख; भ इत्यादि के समान) म् का हकार से युक्त रूप है । दवग्गी... सिद्धम्-दवगी और बडू शब्दों में प्रस्तुत सूत्र से आ का अ हुआ है। ऐसे कहने का कारण नहीं है । कारण दवाग्नि और चटु इन दो शब्दों से ही वे सिद्ध हुए हैं।
१.६८ धन .... आकार:---धञ् प्रत्यय के निमित्त से ( मूल शब्द में ) वृद्धि होकर आया हुआ आकार । संस्कृत में धञ् एक कृत् प्रत्यय है; वह लगते समय, धातु में से स्तर में वृद्धि होती है । अ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ ऋ और ल इनके अनुक्रम से आ, ऐ, औ, आर् और आल होना यानी वृद्धि होना ।
१.६६ मरहट्ठ-महाराष्ट्र शब्द में वर्ण व्यत्यय होकर यह शब्द बना है । सूत्र २.११९ देखिए।
१.७४ संखायं.... "सिद्धम्-स्त्य धातु से बने हुए स्त्यान शब्द में आ का ई होता है। परन्तु सं-स्त्यै धातु से साधे हुए संखाय शब्द में आ का ई दिखाई नहीं देता है । कारण सूत्र ४.१५ नुसार संस्त्यै धातु को संखा ऐसा आदेश होने पर, संखाय रूप सिद्ध हुआ है।
१.७५ सुण्हा—इसमें से 'हा' के लिए सूत्र २.७५ देखिए। थुवओ---इस में से थ के लिए सूत्र २.४५ देखिए । १७८ गेज्झ--ज्झ के लिऐ सूत्र २२६ देखिए । १.७६ दारं बार--द्वार में से व् के लोप के लिए सूत्र २७९ देखिए । द् का लोप और द् का ब् होकर बार रूप बना है।
कथं नेरइओ नारइओ-नारकिक शब्द में, आ का विकल्प से ए होकर, नैरइओ और नारइओ रूप न बने हों; तो वे कैसे बने हैं, ऐसा प्रश्न यहाँ है। .
१.८१ मावट-प्रत्यये--मात्रट ( = मात्र ) प्रत्यय में। मात्रच् ( मात्र ) एक
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