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प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
४२३६ संस्कृत में से व्यञ्जनान्त धातुओं के अन्त में अ स्वर आकर वे अकारान्त होते हैं । कुणइ-कुण यह कृ धातु का धात्वादेश इस स्वरूप में सूत्र ४.६५ में कहा हुआ है । तथाही,कृ धातु व्यञ्जनान्त नही है। इसलिए कुण यह उदाहरण यहाँ योग्य दिखाई नहीं देता है। हरइ करइ-ह और कृ धातुओं से हर और कर होते हैं ( सूत्र ४२३४ देखिए) । ह और कृ धातु व्यञ्जनान्त नहीं हैं। इसलिए ये उदाहरण यहाँ योग्य नहीं हैं । शबादीनाम्-शप-+आदीनाम् ।।
४.२४० चिइच्छइ-सूत्र २.२१ देखिए । दुगुच्छइ-सूत्र ४.४ देखिए ।
४.२४१ एषां.."हस्वो भवति-आगे 'ण' आने पर, पिछला स्वर दीर्घ हो, तो वह ह्रस्व हो जाता है। उदा०-लु+ =लुग । उच्चिणइ उच्चेइ-यहाँ उद् उपसर्ग है।
४२४२ द्विरुक्त वकारागम-द्विरुक्त वकःर का आगम यानी 'व्व' का आगम . क्यस्य लक-क्य प्रत्यय का लोप । क्य प्रत्यय के लिए सूत्र ३.१६० देखिए ।
४२४३ संयुत्तो मः-संयुक्त म यानी म्म ।
४.२४४ द्विरुक्तो मः--यानी म्म । हन्ति--यह हन् धातु का कर्तरि रूप है। हन्तब्वं हन्तूण हओ--ये हन धातु के अनुक्रम से वि० क. धा० वि०, पू० का धा० अ० और भू० धा० के रूप हैं ।
४.२४५ द्विरुक्तो भ:--द्विरुक्त भ यानी ब्भ । ४.२४६ द्विरुक्तः झः-ज्झ ऐसा द्वित्व ।
४.२५१ विढविज्जइ--विढव धातु अज् धातु का आदेश है ( सूत्र' ४.१०८)।
४२५२ जाणमुण--ये ज्ञा धातु के आदेश हैं ( सूत्र ४.७ )।
४२५४ आङ-आ उपसर्ग। आढवीअइ-आढव इस धत्वादेश को ( सूत्र ४.१५५) सूत्र ३.१६० के अनुसार, ई अ प्रत्यय लगा कर बना हुआ कर्मणि रूप है।
४.२५५ स्निह्यते सिच्यते--स्निह , सिच् धातु के कर्मणि रूप हैं। ४२५७ छिविज्जइ--छिव धात्वादेश का ( सूत्र ४.१८२ ) कर्मणि रूप ।
४२५८ निपात्यन्ते--सूत्र २.१७४ ऊपर की टिप्पणी देखिए । इस सूत्र के नीचे वृत्ति में कहे हुए क. भू० धा• वि० के निपात प्रायः देशी शब्द हैं। ___ ४२५६ संस्कृत में से कुछ धातुओं को प्राकृत में कौन से भिन्न अर्थ प्राप्त हुए: हैं, वह यहां कहा है।
४२६०-२८६ इन सूत्रों में शौरसेनी भाषा के वैशिष्टय कहे हैं ।
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