Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Hemchandracharya, K V Apte
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३९९ यहां युष्मद् के द्वितीया ए० व० में पई आदेश है । वेग्गला-मराठी में वेगला । एवं तई-उदा०-तई नेउ अक्ख ठाणु ( कुमारपालचरित, ८.३२ )। ४.३७१ श्लोक १-~-तुमने हमने ( रणांगण में ) जो किया, उसे बहुत लोगों ने देखा; उस समय उतना बड़ा युद्ध ( हमने ) एक क्षण में जीता। यहां युष्मद् के तृतोया अनेकवचन में तुम्हेहि आदेश है। अम्हेहिं -सूत्र ४.३७८ देखिए । तेवड्ड 3 --- सूत्र ४.४०५ के अनुसार तेवड, फिर ड् का द्वित्व होकर तेवड्ड, बाद में सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आ गया। ४.३७२ श्लोक १- भूमंडल पर जन्म लेकर, अन्य लोग तेरी गुणसंपदा, तेरी मति और तेरी सर्वोतम ( अनुपम ) क्षमा को सीखे ( शब्दश:-सोखते हैं )। यहां तउ, तुज्झ और तुध्र ये तीन युष्मद् के षष्ठी एकवचन में आदेश हैं। हेमचन्द्र ने षष्ठी एकवचन का तुज्झ आदेश दिया है। इस ४.३७२.१ श्लोक में तुज्झ का पाठभेद बुज्झु ऐसा है। ४.३७०.४ श्लोक में तुज्झु है और वहाँ उसका पाठभेद तुज्झ है । ४.३६७.१ श्लोक में तुज्झु ऐसा ही रूप है; वहाँ पाठभेद नहीं है । इसलिए युष्मद् के षष्ठी एकवचन में तुज्झु ऐसा भी रूप होता है ऐसा दिखाई देता है । मदसूत्र ४.२६०, ४४६ देखिए । ४.३७५ तसू दुल्लहहो-यहाँ अस्मद् के प्रथमा एकवचन में हलं आदेश है। ४. ७६ श्लोक १-( रणांगण पर जाते समय एक योद्धा अपनी प्रिया को उद्देश्य कर यह श्लोक उच्चारता है :-) हम थोड़े हैं, शत्रु बहुत हैं, ऐसा कायर (लोग ) कहते हैं। हे संदरि ( मुग्धे ), गगन में देव । ( वहाँ ) कितने लोग (यानी तारे) चाँदनी/ज्योत्स्ना देते हैं ? ( उत्तर-केवल चन्द्र ही)। यहाँ प्रथमा अन्यवचन में अस्मद् को अम्हे आदेश है। एम्व--सूत्र ४.४९० देखिए । निहालहि-मराठी में न्याहालणे । श्लोक २-(एक विरहिणी प्रवास पर गए हुए अपने प्रियकर के बारे में कहत है :-) प्रेम स्नेह ( अम्लत्व ) लगाकर जो कोई परकीय पथिक ( प्रवास पर) चले गए हैं, ये अवश्य हमारे समान ही सुख से नहीं सो सकते होंगे । यहाँ अस्मद् के प्रथमा अ० व० में अम्हई आदेश है। लाइबि-सूत्र ४.४३० देखिए । अवस--सूत्र ४.४२७ देखिए । अम्हे....."देवखइ---यहाँ अस्मद् वे द्वितीया अनेकवचग में अम्हे और अम्हई आदेश हैं। ४.३७७ श्लोक १-हे प्रियकर, मैंने समझाया कि विरहीजनों को संध्य समय में कुछ आधार ( अवलम्बन, दुःखनिवृत्ति, धरा) मिलता है; परन्तु प्रलयका में जैसा सूर्य, वैसा ही चन्द्र ( इस समय ) ताप दे रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462