Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Hemchandracharya, K V Apte
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद - ४३६६ श्लोक १ - व्यास महर्षि ऐसा कहते हैं—-यदि वेद और शास्त्र प्रमाण हैं तो माताओं के चरणों में नमन करने वालों को हररोज गंगास्नान होता है । यहाँ व्यास शब्द में रेफ जा आगम होकर वासु शब्द बना है । दिविदिवि - सूत्र ४*४१९, ४१० देखिए । वासेण बदुध - इसके स्थान पर 'बासेण बि भारहं अपि भारतं स्तम्भे बद्धम् - व्यास ने भी भारत स्तम्भ में पाठभेद है | यहाँ बासेण में रेफ नहीं आया है । ४४०० श्लोक १ – बुरा (कर्म) करने वाले पुरुषपर आपत्ति आती है । ४०७ यहाँ आवइ शब्द में, दकार कां इकार हुआ है । आवइ – आपद् । आवइआयाति । गुणहिँ पर - यहा संपय में द का इकार नहीं हुआ है । खंभि बद्ध' ( व्यासेन ग्रथित किया ) ऐसा ४४० : श्लोक १ - दुष्ट दिवस कैसे समाप्त हो ? रात कैसे शीघ्र आए ? ( अपनी ) नववधू को देखने के लिए उत्सुक हुआ वह भी (ऐसे ) मनोरथ करता है । यहाँ कथम् को केय और किव आदेश हुए हैं । समप्पठ - सूत्र ३ १७३ देखिए । छुड (देशी, शीघ्र, झटपट । श्लोक २- मुझे लगता है (ओ) - सुंदरी के सुख से जीत गया चंद्र बादलों के पीछे छिपता है । जिसका शरीर पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोई भी निःशंक भाव से कैसे घूमेगा ? यहाँ कथम् को किम ( किवें ) आदेश है । अ - सूत्र २ २०३ देखिए । भवँइ - भ्रमति में सूत्र ४९३९७ के अनुसार म का व हुआ है । श्लोक ३ - हे श्रीआनंद, सुंदरी के बिबाधर पर दंत व्रण कैसे ( स्थित ) है ? ( उत्तर - ) मानो उत्कृष्ट रस पीकर प्रियकर ने अवशिष्टपर मुद्रा (मुहर) देवी है । यहाँ कथम् को किह आदेश हुआ है । पिअवि--सूत्र ४४३९ देखिए । जणु -- सूत्र ४४४२ देखिए । श्लोक ४ - हे सखि, यदि मेरा प्रियकर मुझसे सदोष है, तो वह (तू) छिपकर ( चुराकर ) इसी प्रकार ( मुझे ) बता कि ( जिससे ) उसमें पक्षपाती होने वाला मेरा मन न समझें । यहाँ तथा को तेम ( तेवं ) और यथा को जेभ ( जेब ) आदेश हुए हैं । श्लोक ५ - श्लोक ४३७७ १ देखिए | एवं हाथ - जिध-तिध के उदा०जिध तिध तीsहि कम्मु ( कुमारपालचरित, ८.४९ ) । Jain Education International ४·४०२ श्लोक १ - - ( शुक्राचार्य कहता है- ) हे राजा बलि, मैंने तुझे कहा था कि किस प्रकार का याचक यह है । अरे मूर्ख, यह जैसा तैसा ( कोई ) नहीं है, वह ऐसा स्वयं नारायण है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462