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टिप्पणियाँ
४.३४७ गुणहि पर यहाँ गुणहिँ इस तृतीया अनेकवचन में हि
आदेश है ।
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श्लोक १ – जिस प्रकार भागीरथी ( गंगा नदी ) भारत में तीन मार्गों से ( = प्रवाहों से ) प्रवृत्त होती है ।
यहाँ मग्गेहि और तिहि इन सप्तमी अनेकवचनों में हि आदेश है । भारइसूत्र ४३३४ देखिए ।
४°३४८ - ३५२ इन सूत्रों में स्त्रीलिंगी शब्दों को लगने वाले आदेश कहे हैं । उनका अन्त्य स्वर कोई भी हो, प्रत्यय अथवा आदेश वे ही हैं ।
४ ३४८ अंगुलिउनहेण - अंगुलिउ और जज्जरियाउ इन प्रथमा अनेकबचनों में उ आदेश है ।
श्लोक १ -- सर्वांगसुन्दर विलासिनियों को देखने वालों का ।
यहाँ सव्वंगा में उ और विलासिणीओ में ओ आदेश है ।
वचन··· ··‘यथासंख्यम् - सूत्र में 'जस्शसो: ' ऐसा द्विवचन है और 'उदोत्' शब्द एकवचन में है । इसका अभिप्राय यह है कि भिन्न वचन प्रयुक्त करके यहाँ आदेश कहा है । यह दिखाने के लिए ऐसा वचनभेद किया है कि यहाँ कहे हुए आदेश अनुक्रम से नहीं होते हैं । ( ऐसे ही शब्द आगे भी जहां आएंगे वहाँ भी इसी प्रकार का अर्थ मानना है ) ।
४ ३४६ श्लोक १ – सुन्दर स्त्री ( मुग्धा ) अन्धकार में भी अपने मुख के किरणों से हाथ देखती है। तो फिर पूर्ण चन्द्र की चांदनी में वह दूर के पदार्थ क्यों न देखती हो ?
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यहाँ चंदिभएँ इस तृतीया एकवचन में ए आदेश है । करहि -- सूत्र ४.३४७ देखिए । पुणु - सूत्र ४४२६ देखिए । काइँ — सूत्र ४३६७ देखिए ।
श्लोक २ - जहाँ मरकत मणि के प्रकाश से वेष्टित है ।
यहाँ कंतिएँ इस तृतीया ए० व० में ए आदेश है । जहिं – सूत्र ४३५७ देखिए ।
४.३५० श्लोक १ - तुच्छ कटिभाग होने वाली, तुच्छ बोलने वाली, तुच्छ और सुन्दर रोमावली ( उदर पर ) होने वाली, तुच्छ प्रेम होने वाली ( = दिखाने वाली ), तुच्छ हँसने वाली, प्रियकर की वार्ता के न पाने के कारण जिसका शरीर तुच्छ हुआ है ऐसी, ( और मानो ) सदन का निवास होने वाली ( अथवा - जिसे प्रियकर का समाचार नहीं प्राप्त हुआ है और जिसके कृश शरीर में मदन का निवास है, ऐसी ऐसे वह सुन्दरी ( मुग्धा ) का अन्य जो कुछ भी तुच्छ है वह
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