________________
प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद
३८५
श्लोक ३--हे बिटिया, मैंने तुझसे कहा था कि बाँकी दृष्टि मत कर। ( कारण ) हे बिटिया, (यह बांकी दृष्टि ) नोकदार भाले के समान (दूसरों के ) हृदय में प्रविष्ट होकर ( उन्हें ) मारती है।
यहाँ स्त्रीलिंग में दिट्टि, पइट्ठि, भणिय शब्दों में दीर्घ का ह्रस्व स्वर हुआ है। बिट्टीए-मराठी में । हिन्दी में बेटा, बेटी । जिव-सूत्र ४.४०१, ३९७ देखिए । हि अइ---सूत्र ४.३३४ देखिए ।
श्लोक ४--ये वे घोड़े हैं; यह वह ( युद्ध-) भूमि है; ये वे तीक्ष्ण तलवार हैं; जो घोड़े को बाग लगाम ( पीछे ) नहीं खिचता है ( और रणक्षेत्र पर युद्ध करते रहता है, उसके ) पौरुष की परीक्षा यहां होती है।
यहाँ प्रथमा अ० व० में घोडा, णिक्षिा शब्दों में ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर हुमा है, और ति, खग्ग, वग्ग शब्दों में दीर्घ स्वर का ह्रस्व हुआ है। ए इ-सूत्र ४.३६३ देखिए । ति--ते शब्द में ए ह्रस्व होकर इ हुआ है । ए ह–सूत्र ४ ३६२ देखिए । एत्थु--सूत्र ४.४०५ देखिए ।
४.३३१ भुवन-भयंकर ऐसा रावण शंकर को सन्तुष्ट करके रथ पर आरूढ होकर निकला। ( ऐसा लग रहा था ) मानों देवों ने ब्रह्मदेव और कार्तिकेय का ध्यान करके और उन दोनों को एकत्र करके उस ( रावण ) को बनाया था।
यहाँ दहमुहु, भयंकरु, संकरु, गिग्गउ, चडिअउ, धडिअउ, इन प्रथमा एकवचनों में अ का उ हुआ है। चउभुहु और छम्मुहु में द्वितीया एकवचन में अकाउ हुआ है। रहवरि-सूत्र ४.३३४ देखिए । चडिअउ-चडशब्द आरुह, धातु का आदेश है ( सूत्र ४.२०६)। झाइवि-सूत्र ४.४३९ देखिए । एक्कहि---सूत्र ४.३५० देखिए । णावइ-सूत्र ४.४४४ देखिए । दइवें—सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए।
४३३२ श्लोक १-जिनका स्नेह नष्ट नही हुआ है ऐसे स्नेह से परिपूर्ण व्यक्तियों के बीच लाख योजनों का अन्तर होने दो; हे सखि, ( स्नेह नष्ट न होते ) जो शत वर्षों के बाद भी मिलता है, वह सौख्य का स्थान है।
यहाँ जो और सो इन प्रथमा एकवचनों में अ का ओ हुआ है। लक्ख, ठाउ-सूत्र ४.३३१ देखिए । °सएण-सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए । सोक्खह, "निवट्टाह-सूत्र ४.३३९ देखिए ।
श्लोक २-हे सखि, ( प्रियकर के ) अंग से ( मेरा ) अंग मिला नहीं ( और ) अधर से अधर मिला नहीं; ( मेरे ) प्रियकर के मुख-कमल देखते-देखते ही ( हमारी) सुरत-क्रीडा समाप्त हो गई।
२५ प्रा० व्या०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org