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टिप्पणियां
यहाँ अंगु, मिलिउ, सुरउ शब्दों में अ का ओ नहीं हुआ है। अंगहिं-सूत्र ४.३३५ देखिए । हलि--हले ( सूत्र २.१९५ देखिए ) शब्द में ए का ह्रस्व स्वर दया है। अहरें--सत्र ४३३३, ३४२ देखिए । पिअ--सूत्र ४.३४५ देखिए । जोअन्ति--सत्र ४ ३५० देखिए । जो अ शब्द का अर्थ देखना है। एम्बइ--सूत्र ४.४२० देखिए ।
४.३३३ श्लोक १--प्रवास को निकलने वाले प्रियकर ने ( अवधि के रूप में ) जो दिन दिए थे ( = कहे थे ), उन्हें गिनते-गि मते नखों से ( मेरी ) अंगुलियाँ जर्जरित हो गई हैं।
यहां दइएँ में अ का ए हुआ है। मह -सूत्र ४.३७९ देखिए । दिअहडा-- सत्र ४.४२५ देखिए । दइएँ पवसंतेण नहेण--सूत्र ४ ३४२ देखिए । गगन्तिएँ-- सत्र ३.२९ देखिए । अंगुलिउ जज्जरिआउ-सूत्र ३४८ देखिए । ताण--यह रूप ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत में षष्ठी अनेकवचन का है। यहां उसका उपयोग द्वितीया के बदले ( सूत्र ३.१३४ देखिए) किया है ।
४.३३४ श्लोक १-सागर तृणों को ऊपर ( उठाकर ) धरता है और रत्नों को तल में ढकेलता है। ( उसी तरह ) स्वामी अच्छे सेवक को छोड़ देता है और खलों का ( दुष्टों का ) सन्मान करता है।
यहाँ तलि इस सप्तमी एकवचन में अकार का इकार हुआ है। तले धल्लइ-- गाडी तले इस सप्तमी एकवचन में अकार का एकार हुआ है । उपरि-उपरि शब्द में ५ का द्वित्व हुआ है । खलाई-सूत्र ४.४४५ देखिए।
४.३३५ श्लोक १--गुणों से ( गुणों के द्वारा) कीर्ति मिलती है परन्तु सम्पत्ति नहीं मिलती; (दैव ने भाल पर ) लिखे हुए फल ही ( लोग ) भोगते हैं । सिंह को एक कौडी भी नहीं मिलती; तथापि हाथिओं को लाखों रुपये पड़ते हैं ( शब्दश:-- हाथी लाखों ( रुपयों ) से खरीदे जाते हैं ।
यहां लक्खे हि इस तृतीया अनेकवचन में अकार का एकार हुआ है । गुण हि में अकार का एकार नहीं हुआ है । गुणहि, लक्खेहि--यहाँ हिं और हि ये प्राकृत में से तृतीया अ० व० के प्रत्यय हैं ( सूत्र ३.७ देखिए )। अपभ्रंश के तृतीया अ० व० प्रत्ययों के लिए सूत्र ४.३४७ देखिए । पर परम् । बोड्डिओ ( देशी )--कौडी। धेप्पन्ति -सूत्र ४२५६ देखिए।
४.३३६ अस्येति... ...णभ्यते--सूत्र ३.२० ऊपर की 'इदुत... ."सम्बध्यते' इस वाक्य के ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १-मानव वृक्षों से फल लेता है और कटु पल्लवों को छोड़ देता है । तथापि सुजन के समान महान् वृक्ष उन्हें ( अपने ) गोद में धारण करता है।
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