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टिप्पणियाँ
१·२०३ वेलू - - मराठी में वेकू ।
१·२०६ बहेडओ हरडई मडयं -- मराठी में बेहडा, हिरडा, मडे ( मटे ) | पइट्ठा - मराठी में पैठा, पैठ ।
१·२०७ इ: स्वप्नादौ "बलात्—वेतस त में से अ का इ होने पर हो, त का ड होता है, वेतस शब्द में अ का इ न हो, तो त का ड न होते, इसका अभिप्रायः - प्रस्तुत सूत्र में से ' इत्व होने पर ही' सामर्थ्य से वेतस शब्द में 'इ: स्वप्नादी' इस सूत्र के जब वैसा नहीं होता है तो वे अस वर्णान्तर हो जाता है
"
।
शब्द
ऐसा
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सूत्र १°४६ के अनुसार, प्रस्तुत सूत्र कहता है । यदि अस ऐसा वर्णान्तर होता है । इन शब्दों की व्यावृत्ति के अनुसार इकार नहीं होता है,
१२०८ अणितयं -- सूत्र १९७८ देखिए ।
१·२०६ अत्र केचिद्नोच्यते - यहाँ हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती एक वैयाकरण वररुचि के कहे हुए एक नियम का प्रतिवाद है, ऐसा दिखाई देता है । 'ऋत्वांदिष तो द; ( प्राकृत प्रकाश, २७ ) इस वररुचि के सूत्र में कहा है कि स्वर के अगले अनादि असंयुक्त त का द प्राकृत में होता है । हेमचन्द्र के मतानुसार, ऐसा न का द होना यह ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत का वैशिष्ट्य नहीं हैं; वह शौरसेनी और मागधी भाषाओं का वैशिष्टय | इसलिए हेमचन्द्र यहाँ कहता है कि प्रस्तुत स्थल में प्राकृत के विवेचन में न का द होना यह वर्णान्तर नहीं कहा गया हैं । न पुन इत्यादि - ( माहाराष्ट्री )
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प्राकृत में अनादि असंपृक्त त का द न होने के कारण, ऋतु, रजन इत्यादि शब्दों के रिउ, रमय इत्यादि रूप होते हैं । परन्तु उदू, रयदं इत्यादि वर्णान्तर मात्र नहीं होते हैं । क्वचित् सिद्धम् - - मानो माहाराष्ट्री प्राकृत में क्वचित् कुछ शब्दों में तकाद हुआ है ऐसा दिखाई पड़ता हो ( भावेऽपि ), तो भी वह 'व्यत्ययश्च' (सूत्र ४०४४७) सूत्र से सिद्ध होगा । दिही " "वक्ष्यामः -- धृति शब्द से त का द होकर फिर वर्ण विपर्यय होकर दिही वर्णान्तर होता है क्या, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है । धृति शब्द को दिही ऐसा आदेश होता है, ऐसा हम आगे (सूत्र २९१ : में) कहने वाले हैं, ऐसा हेमचन्द्र कहता है । डॉ० वैद्य जी धृतिका वर्णान्तर आगे दिए * पद्धतिनुसार सूचित करते हैं: - धृति = द् + ह् + ऋ + ति = द + ह् + इ ( क्क्का इ होकर ) + इ ( त् का लोप होने पर ) = द् + इ हि + इ = द् + हि ( वर्ण व्यत्यय होकर ) = दिहि |
१-२१० सत्तरी - मराठी में, हिंदी में सत्तर ।
१·२११ अलसी – मराठी में अलशी । सालाहणी - सूत्र १.८ देखिए ।
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