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तृतीय पाद
सि
शस्
भ्यस्
ऋष्ठी
३.१ वीप्सार्थात् पदात्-ये शब्द सूत्र में से वोप्स्यात् शब्द का अनुवाद करते हैं । जिस पद की पुनरावृत्ति की जाती है उसे वोप्स्यपद कहते हैं। स्यादेः स्थानेविभक्ति प्रत्यय के स्थान पर । स्यादि (=सि-+-आदि) यानी सि जिनके आदि है, वे यानी विभक्ति प्रत्यय । विभक्ति प्रत्ययों की तान्त्रिक संज्ञाएं निम्न के अनुसार हैं,विभक्ति एकवचन
बहु (अनेक) वचन प्रथमा
जस् द्वितीया
अम् तृतीया
भिस् (चतुर्थी)
(भ्यस्) पंचमी
आम् सप्तमी ३.२ डी--डित् ओ । सूत्र १.३७ ऊपर की टिप्पणी देखिए ।
३.३ एतत्तदोकारात्-एतद् और तद् के अकार के आगे। एय (अ) और त इन स्वरूपों मे ये सर्वनाम अकारान्त होते हैं।
३४ वच्छा एए-वच्छा यह प्रथमा अ० ब० है यह दिखाने के लिए एए यह एतद् सर्वनाम का प्रथमा अ० व० प्रयुक्त किया है। सूत्र ३.४, १२ के अनुसार वच्छा रूप होता है। वच्छे पेच्छा ---सत्र ३.४, १४ के अनुसार वच्छे रूप बनता है । वच्छे यह द्वितीया दिभक्त का रूप है, यह दिखाने के लिए पेच्छ इस क्रियापद का प्रयोग है। पिछले शब्द २ शब्दों की द्वितीया विभक्ति दिखाने के लिए पेच्छ क्रियापद का ऐसा उपयोग आगे पूत्र ३.५ १४, १६, १८, ३६, ५०, ५३, ५५, १०७-१०८; १२२, १२४ में किया गया है।
३.६ वच्छेण--सूत्र ३.६, १३ देखिए । वच्छण-सूत्र ३.६, १२ देखिए ।
३.७ सानुनासिक--सूत्र ११७८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । वच्छेहि-हि-हिंसूत्र ३.७, १५ देखिए । छाही-सूत्र १.२४९ देखिए ।
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