________________
प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद
३२९
संयुक्त व्यञ्जन होने से यह ओ ह्रस्व हो जाता है और इस ह्रस्व ओ के स्थान पर ह्रस्व उ लिखा गया है, ऐसा भी कहा जा सकता है।
१.१६१ कुच्छेअयं--सूत्र १.१६० के ऊपर की 'सुंदेरं....."सुद्धोअणी' ऊपर की टिप्पणी देखिए।
१.१६४ नावा--मराठी में नाव । १:१६५-७५ इन सूत्रों में संकीर्ण स्वर विकार कहे हुए हैं ।
१.१६६ थेरो--मराठी में थेर (डा)। वेइल्लं-द्वित्व के लिए सूत्र २.९८देखिए । मुद्धविअइल्लपसूण पुंजा---यहाँ विअइल्ल शब्द में ए नही हुआ है।
१.१६७ केलं केली--मराठी में केल केली । हिंदी में केला । १.१७० पूतर--'अधम; जलजन्तुर्वा' ऐसा अर्थ त्रिविक्रम देता है ।
बोरं बोरी--मराठी में बोर, बोरी। पोप्फलं पोप्फली-मराठी के पोफल, पोफली।
१.१७१ मोहो–यहाँ मऊह ( सूत्र १.१७७ ) में उद्धृत स्वर का पिछले स्वर से संधि होकर मो हआ, ऐसा भी कहा जा सकता है। लोणं-मराठी में लोण, लोणा । चोग्गुणो, चोत्थो, चोत्थी, चोदह, चौद्दसी, चोव्वारो-इन शब्दों में प्रथम त् का लोप ( सूत्र १.१७७ ) होकर फिर उ इस उद्वृत्त स्वर का पिछले स्वर से संधि होकर चो हुआ है, ऐसा भी कहा जा सकता है। सोमालो-इस शब्द में र के ल के लिए सूत्र १.२५४ देखिए ।
१.१७३ ऊज्झाओ--दीर्घ ऊ होता है ऐसा कहकर यह वर्णान्तर दिया गया है । (ऊ के आगे ज्झ संयुक्त व्यञ्जन होने से, उज्झाओ ऐसा भी वर्णान्तर कभी-कभी दिखाई देता है)।
१.१७४ णुमण्णो-सूत्र १९४ के नीचे णुमण्णो (नो) शब्द निमग्न शब्द का वणन्तिर इस रूप में दिया था । पर यहां मात्र णुमण्णो शब्द निप्पण्ण का आदेश है ऐसा कहा है।
१.१७५ पंगुरणं--मराठी में पांग (घ) रुण। १.१७६-२७१ इन सूत्रों में अनादि असंयुक्त व्यञ्जनों के विकार कहे हुए हैं।
१.१७६ यह अधिकार सूत्र है। प्रस्तुत प्रयम पाद के अन्त तक इस सूत्र का अधिकार है।
१.१७७ स्वर के अगले अनादि असंयुक्त क् ग् च ज त् द् प य व इन ब्यञ्जनों का लोप होता है। यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org