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चतुर्थः पादः
भो दुह - लिह-वह-रुधामुच्चातः ।। २४५ ।।
दुहादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक्, बहेरकारस्य च उकारः । दुब्भइ दुहिज्जइ । लिभइ लिहिज्जइ । वूब्भइ वहिज्जइ । रुब्भइ रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुब्भिहिइ दुहिहिइ । इत्यादि ।
२३०
कर्मणि और भावे ( रूपों ) में, दुह, इत्यादि ( यानी ) दुह: लिह, वह और रुध् ) धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्विरुक्त भ ( = ब्भ ) विकल्प से होता है, ओर उस ( ब्भ ) के सांनित्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है, और वह - ( धातु ) में से अकार का उकार होता है । उदा०- दुब्भइरुन्धिज्जइ । भविष्यकाल में ( उदा० - दुब्भिहिद्द, दुद्दिहि इत्यादि ।
दहो ज्झः ।। २४६ ॥
दहोन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् उज्झइ डहिज्जइ । भविष्यति । इज्झिहिइ डहिहिए ।
कर्मणि और भावे रूपों में, दह, धातु के अन्त्यवर्ण का द्विरुक्त झ ( = ज ) विकल्प से होता है, और उस ( ज्झ ) के सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा - उज्झइ, डहिज्झइ । भविष्यकाल में ( उदा० ):- उज्झिइ डहिहि । बन्धो न्धः ।। २४७ ॥
बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् । बज्झइ बन्धिज्जइ । भविष्यति । बज्झिहिई उन्धिहिइ ।
कर्मणि और भावे रूपों में, बन्ध धातु के अन्त्य न्ध् अवयव का ज्झ विकल्प से होता है और उस ( ज्झ ) के सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा०झइ बन्धिज्जइ । भविष्यकाल में (उदा० ) :- बज्झिहि, बन्धिहि ।
समनूपाद् रुधेः ॥ २४८ ॥
समनूपेभ्यः परस्य रुधेरन्त्यस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । संरुज्जइ । अणुरुज्झइ । उवरुज्झइ । पक्षे । संरुन्धिज्जइ । अरुन्धिज्जइ । उवरुन्धिज्जइ । भविष्यति । संरुज्झिहिइ
संरुन्धिहिइ ।
इत्यादि ।
कर्मणि और भावे रूपों में, सम्, अनु, ( अथवा ) उप (
होने बाले रुध् धातु के जन्त्य वर्ण का सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप
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इन उपसर्गों ) के आगे ज्झ विकल्प से होता है, और उस ( झ ) के होता है । उदा०--- संरुज्झइ
'उबरुज्झद्द |
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