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प्राकृतव्याकरणे
कन्तु "समाणु ॥ २ ॥ मा ( शब्द ) को मं ( आदेश ):- मं धणि
ऐसे आदेश होते हैं । उदा० -- एवम् को एम्व ( आदेश ) - पियसंग मि परम् को पर ( आदेश ) : - गुगहिँ " .......पर | समम् को समाणु ( ध्रुवम् को ध्रुवु ( आदेश ) : - चञ्चलु "विमाउ । प्रायः का ग्रहण (अधिकार) अथवा मा वैसा ही रहता है अज्जु || ५ || मनाक् को मणाउं
होने से, ( कभी मा उदा०- ) माणि...
को म ऐसा आदेश होता है 'भमिज्ज || ४ || लोण
( आदेश ) : - विहविन अन्तु ॥ ६ ॥
किलाथवा दिवासहनहे: किराहवइ दिवे सहु नाहिं ।। ४१९ ।।
अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति । किलस्य किरः ।
किर' न खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवणु न जाणइ जह जमहो खर्णेण पहुच्चइ दूअडउ ॥ १ ॥
अथवो हवइ | अहवइ' न सुवं सह एह खोडि । प्रायोधिकारात् । जाइ इ तर्हि देसडइ लब्भइ पियहों पमाणु । जइ आवइता आणि अइ अहवा तं जि निवाण ॥ २ ॥ दिवो दिवे । दिवि दिव गंगाहाणु ॥ ( ४.३६६.१ ) । सहस्य हुं ।
जउ 'पवसन्तें सहुं न गय ग मुअ विओएँ तस्सु । लज्ज ज्जइ सन्देसडा दिन्तंहि सुहयजणस्सु ॥ ३ ॥
नहेर्नाह ।
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तेम्ब] ॥ १ ॥ आदेश ) :सयाई ॥ ३ ॥
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मेह' प अंति जलु एत्तहे' वडवानल आवट्टइ । क्खु गहीरम सायरहो एक्क विकणि अ नाहि ओहट्टइ ॥ ४ ॥ १. किल न खादति न पिबति न विद्रवति धर्मे न व्ययति रूपकम् । इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य क्षणेन
प्रभवति दूतः ॥
२. = अथवा न सुवंशानां एष दोषः ।
३. यायते ( गम्यते) तस्मिन् देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम् । यदि आगच्छति तदा आनीयते अथवा तत्रैव निर्वाणम् ॥ ४. यतः प्रवसना सहनगता न मृता वियोगेन तस्य । लज्ज्यते संदेशान् ददतीभि: ( अस्माभिः ) सुभगजनस्य || ५. इत: मेधाः पिबन्ति जलं इतः वडवानलः आवर्तते । प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका नहि अपभ्रश्यते ॥
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