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प्राकृतव्याकरणे
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रयणीअरे । आबभाषे रजनीचरानित्यर्थः । भूते प्रसिद्धा वर्तमानेपि । सोही एस वण्ठो । शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः ।
तथा प्राकृत इत्यादि भाषाओं के लक्षणों का व्यत्यय ( = परस्पर बदल ) होता है । उदा:--मागधी ( भाषा ) में 'तिष्ठनिष्ठ' ऐसा जो कहा हुआ है, उसके समान । माहाराष्ट्री---- ) प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी ( इन भाषाओं) में भी होता है। उदा:--चिष्ठदि । अपभ्रंश भाषा में, ( संयोग में ) आगे रहने वाला रेफ वैसा ही रहता है अथवा उसका लोप होता है ( ऐसा कहा हुआ ) नियम मागधी भाषा में भी लागू होता है। उदा०-शद-माणुश..... 'शंचिदे; इत्यादि । इसी प्रकार अन्य उदाहरण देखे । केवल भाषाओं के लक्षणों में ही व्यत्यय होता है ऐसा नहीं तो,त्यादि (धातुओं को लगने वाले) प्रत्ययों के आदेशों का ही व्यत्यय होता है ( इसका अभिप्राय ऐसा है:--) जो आदेश वर्तमान काल के इस रूप में प्रसिद्ध हैं, वे ( आदेश ) भूतकाल में भी होता है। उदा०--अह पेच्छइ रहुतगओ ( यानी ) अथ प्रेक्षांचक्रे, ऐसा अर्थ है, आभासइ रयणी अरे ( यानी ) रजनी चरान् आबभाषे ऐसा अर्थ है । । जो आदेश ) भूतकाल के ( इस रूप में ) प्रसिद्ध हैं, ( वे आदेश ) वर्तमानकाल में भी होते हैं । उदा०--सोहीअ एस वण्ठो (यानी) शगोति एषः वण्ठः, ऐसा अर्थ है ।
शेष संस्कृतवत् सिद्धम् ॥ ४४८॥ शेषं यदत्र प्राकृतादिभाषासु अष्टमे नोक्तं तत् सप्ताघ्यायीनिबद्धसंस्कृतदेव सिद्धम् ।
हे ठिसूरनिवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती।
जयइस-सेसा वराह-सास-दूरुक्खया पुवी ॥ १ ॥ अत्र चतुर्था आदेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि क्वचित् संस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृते उरस-शब्दस्य सप्तम्येकवचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा क्वचिदुरसीत्यपि भवति । एवम् । सिरे सिरम्मि सिरसि। सरे सरम्मि' सरसि । सिद्धग्रहणं मंगलार्थम् । ततो ह्यायुप्मच्छोतृकताभ्युदयश्चेति । १. अशृगोत् एष वण्ठ । २. अधः स्थितसूर्यनिवारणाय छत्रं अधः इव वहन्ती ।
जयति स-शेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी । ३. V शिरस् । ४. सरस् ।
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