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टिप्पणियां
कहता है । देश्य शब्दों का विचार हेमचंद्र यहाँ नहीं करता है। क्योंकि देशीनाममाला नामक अपने ग्रंथ में हेमचंद्र के कहने के अनुसार "जे लक्खणे ण सिद्धाण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु, ण य ग उणलक्खणासत्तिसंभवा" ऐसे देशी शब्द होते हैं । देशी शब्द के बारे में मार्कंडेय कहता है:-लक्षणरसिद्ध नत्तद्देशप्रसिद्धं... ..॥ यदाह भोजदेवः-देशे देशे नरेन्द्राणां जनानां च स्वके स्वके। भझ्या प्रवर्तते यस्मात् तस्माद्देश्यं निगद्यते ॥ इसके विपरीत, सिद्ध और साध्यमान ऐसे संस्कृत शब्द ही प्राकृत के मूल हैं । स्वाभाविकतः प्राकृत का यह लक्षण देश्य शम्दों को लागू ही नहीं पड़ता है । इसलिए सिद्ध और साध्यमान ऐसे दो प्रकार के संस्कृत शब्दों से बने हुए प्राकृत का ही विचार हेमचंद्र प्रस्तुत व्याकरण में करता है। सिद्ध-साध्यमानसिद्ध यानी व्याकरण दृष्टि के अनुसार बना हुआ शब्द का पूर्ण रूप । उदा० -~-~शिरोवेदना । शब्द का ऐसा पूर्ण रूप बनने के पहले शब्द की जो स्थिति होती है वह साध्यमान अवस्था होती है। उदा०-शिरोवेदना यह संधि होने के पहले होने वाली शिरस-वेदना स्थिति । संस्कृतसम-संस्कृत के जो शब्द जैसे के तैसे प्राकृत में आते हैं, वे संस्कृतसम शब्द । उदा०-- चित्त, वित्त, देव इत्यादि । संस्कृतलक्षण-~~ संस्कृत व्याकरण । प्रकृतिः...... 'संज्ञादयः-प्रकृति यानी शब्द का मूल रूप । उदा०-राम, वे शव इत्यादि । प्रत्यय यानी विशिष्ट हेतु से शब्द के मूल रूप के आगे रखे जाने वाले वर्ण अथवा शब्द । उदा०-सु, औ इत्यादि । लिङ्ग यानी शब्द का लिंग । शब्द पुल्लिग में, स्त्रीलिंग में, किंवा नपुंसक लिंग में होते हैं । उदा०-देव (पुल्लिग ), देवी ( स्त्रीलिंग ), वन ( नपुंसकलिंग )। कारक यानी वाक्य में जो क्रिया से संबधित होता है वह । संस्कृत में कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे ये छः कारक हैं। समास यानी अनेक पद एकत्र आकर अर्थ के दृष्टि से होने वाला एक पद । उदा०-- राम का मंदिर पाब्द इकट्ठा करके राममंदिर समास वनता है। संज्ञा यानी शास्त्र के पारिभाषिक शब्द । एकाध शास्त्र में कुछ विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त किए जाते हैं; वे सर्व संज्ञाएँ होती हैं। बहुतपुष्कल अर्थ संक्षेप से कहने के लिए संज्ञाओं का उपयोग होता है। उदा०--गुण; वृद्धि इत्यादि । लोकात्-प्राकृत के वर्ण प्रायः संस्कृत में से लिए हैं । संस्कृत के जो वर्ण प्राकृत में नहीं होते हैं ( और जो अधिक वर्ण प्राकृत में होते हैं ) उनकी जानकारी लोगों सेलोगों के भाषा में प्रयोग से--कर लेनी है। त्रिविक्रम भी ऐसा ही कहता है:--- ऋलवर्णाभ्यां ऐकारोकार भ्यां असंयुक्त-ङ त्र-काराभ्यां शषाम्यां द्विवचनादिना च रहितः शब्दोच्चारो लोकव्यवहाराद् एव उपलभ्यते ( १.१.१)। ऋ ऋ...... वर्णसमाम्नाय:--संस्कृत के जो वर्ग प्राकृत में नहीं होते हैं, वे वर्ण होने वाले संस्कृत शब्द योग्य विकार होकर प्राकृत में आते हैं । उदा०-को इ इत्यादि विकार होते हैं । देखिए ऋ के विकार के लिए १.१२६-१४४, ल के विकार के लिए ११४५,
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