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चतुर्थः पादः
(प्राकृत इत्यादि भाषालों के बारे में ) शेष ( कार्य ) यानी जो इस आठवें (अध्याय ) में प्राकृत इत्यादि भाषाओं के बारे में नहीं कहा हुआ है, वह ( पहले ) सात अध्यायों में ग्रथित हुए संस्कृत (भाषा) के समान सिद्ध होता है । ( इसका ज्ञभिप्राय ऐसा है ):-हे?....."पुहवी ॥१॥ यहाँ चतुर्थी (भिभक्ति) का आदेश नहीं कहा है; वह ( इस श्लोक में ) संस्कृत के समान ही सिद्ध होता है । ( प्राकृत इत्यादि भाषाओं के बारे में इस आठवें अध्याय में जो कुछ कार्य कहा भी है, वह (कार्य) भी क्वचित् संस्कृत के समान ही होता है । उदा०-जैसे ( महाराष्ट्री) प्राकृत में सप्तमी (विभक्ति) एकवचनी प्रत्यय से अन्त होने वाले उरस् शब्द के उरे और उरम्भि ऐसे प्रयोग होते हैं, वैसे ही क्वचित् उरसि ऐसा भी ( संस्कृत-समान ) प्रयोग होता है। इसी प्रकार ( अन्य कुछ शब्दों के बारे में भी होता है । उदा०-) सिरे सिरम्भि, सिरसि, सरे सरम्भि, सरसि । ( सूत्र में ) सिद्ध शब्द का निर्देश मंगलार्थ के लिए है । उस कारण से (निश्चित रूप में) आयु,श्रोतृकला और अभ्युदय (ये सब प्राप्त होते हैं ।) इत्याचार्य श्वीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिघानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः ।
( आठवे अध्याय का चतुर्थ पाद समाप्त हुआ।)
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