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प्राकृतव्याकरण
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शेष प्राग्वत् ॥ ३२८ ।। चूलिका पैशाचिके तृतीयतुर्ययोरित्यादि यदुक्तं ततोन्यच्छेष प्राक्तनपैशाचिकवत् भवति । 'नकरं। मक्कनो। अनयो नौ णत्वं न भवति । णस्य च नत्वं स्यात् । एवमन्यदपि ।
चूलिका पैशाचिक भाषा में, 'चूलिका... "तुर्मयोः' ( सूत्र ४.३२५ ) इत्यादि जो ( कार्य ) कहा है, उसके अतिरिक्ति शेष अन्य कार्य पहले कहे हुए (सूत्र ४.३०३३२४ ) पैशाचिक ( पैशाची ) भाषा के समान होता है । उदा०-नकरं, मक्कनो इन दोनों में न का ण नहीं होता है। तथैव ण का न मात्र होगा । इसी प्रकार अन्य भाग भी (जान लें)।
स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे ॥ ३२९ ।। अपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वरा भवन्ति । कच्चु काच्च । वेण वीण। बाह बाहा बाहु । पटिठ पिटिठ पुटिठ । तणु तिणु तृणु । सुकिदु सुकिओ सुकृदु। किन्नओ किलिन्नओ। लिह लीह लेह । गउरि गोरि । प्रायोग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि क्वचित् प्राकृतवन् शौरसेनीवच्च कार्य भवति । ___ अपभ्रंश भाषा में स्वरों के स्थान पर प्रायः (अन्य ) स्वर आते हैं। उदा० - कच्चु..... 'गोरि । (सुत्र में से) प्रायः शब्द के निर्देश से ऐसा दिखाया जाता है कि) जिन ( शब्द इत्यादि ) का ( कुछ ) विशेष अपभ्रंश भाषा में कहा हुआ है, उनका भी क्वचित् ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत के समान तथा शौरसेनी ( भाषा ) के समान कार्य होता है।
स्यादौ दीर्घहस्वौ ।। ३३० ॥ अपभ्रंशे नाम्नोत्यस्वरस्य दीर्घह्रस्वौ स्वादौ प्रायो भवतः । सौ। ढोल्ला' सामला धण चम्पावण्णी।
नाइ सुवण्णरेह कसवट्टइ दिण्णी ॥१॥ १. क्रमसे:-नगर । मार्गण। २. क्रमसे -कछिसत् । वीणा । वेणी । बाहु । पृष्ठ । तृण । सुकृत । क्लिन्न । रेखा।
गोरी। ३. विट: श्यामलः धन्या चम्पकवर्णा । इव सुवर्णरेखा कषपट्टके दत्ता ॥ १ ॥ १७ प्रा० व्या०
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