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प्राकृतव्याकरणे
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बहुत्वे हुँ ॥ ३८६ ॥ त्यादीनामन्त्यत्रयस्य सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद् वचनं तस्य हुँ इत्यादेशो वा भवति ।
खग्गवि सा हि उ जहिं लहहु षिय तहि देहि जाहुँ।
रणदुभिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुं ॥१॥ पक्षे। लहिमु । इत्यादि।
अपभ्रंश भाषा में, त्यादि (प्रत्ययों) में से अन्त्य त्रय से संबंधित बहु (= अनेक) अर्थ में होने वाला जो (बहु/अनेक) वचन, उसको हुऐसा आदेअ विकल्प से होता है। उदा० -- खग्ग वलाई ॥१:: (विकल्प-) पक्षसे:-लहिमु, इत्यादि ।
हिस्वयोरिदुदेत् ॥ ३८७ ॥ पञ्चम्यां हि स्वयोरपभ्रंशे इ उ ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति । इत्।
कुञ्जर' सुमरि म सल्ल इ उ सरला सास म मेल्लि । __ कवल जि पाविय विहि वसिण ते चरि माण म मेल्लि ॥१॥ उत् ।
भमरा एत्थ वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु ।
धणपत्तलु छायाबहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु ॥ २॥ एत्।
प्रिय' एम्वहि करे सेल्लु करि छड्डहि तुहुँ करवालु । __जं कावालिय बप्पुडा लेहि अभग्गु कवाल ॥ ३॥ पक्षे । सुमरहि । इत्यादि।
अपभ्रंश भाषां में, आज्ञार्थ में हि और स्व इन (प्रत्ययों) को इ, उ और ए ऐसे ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-इ ( इत् ऐसा आदेण ):-कुञ्जर...... १.खड्गविसाधितं यत्र लभामहे तत्र देशे यामः ।
रणदुभिक्षेण भग्नाः विना युधेन न वलामहे ॥ २. कुञ्जर स्मर मा सल्लकीः सरलान् श्वासान् मा मुञ्च ।
कवलाः ये प्राप्ताः विधिवशेन तांश्वर मानं मा मुञ्च ॥ ३. भ्रमर अत्रापि निम्बके कति (चित्) दिवसान विलम्बस्व ।
धनपत्रवान् छाया बहुलो फुल्लति यावत् कदम्बः ॥ ४. प्रिय इदानी कुरु भल्लं करे त्यज स्वं करवालम् । येन कापालिका बराकाः लान्ति अभग्नं कपालम् ॥
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