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चतुर्थः पादः
कर्मणि और भावे रूपों में, जानाति ( ज्ञा ) धातु को णव्व और णज्ज ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं, और उनके सानिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०-णव्वइ, णज्जइ। ( विकल्प- ) पक्षमें:-जाणिज्जइ. मुणिज्जइ । 'म्नज्ञोर्ण:' सूत्र से (ज्ञा धातु में ज्ञ इस संयुक्त व्यञ्जन को ) ण आदेश होने पर तो णाइज्जइ ( ऐसा रूप होता है)। नन् (अव्यय) पूर्व में होने वाले ( ज्ञा धातु का ) अगाइज्जइ (ऐसा रूप होता है ।
__ व्याहगेर्वा हिप्पः ॥ २५३ ॥ व्याहरतेः कर्मभावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् । वाहिप्पइ। वाहरिज्जइ।।
कर्मणि और भावे रूपों में, व्याहरति (ध्याह) धातु को वाहिप्प ऐसा आदेश बिकल्प से होता है, और उसके सानिध्य में क्य (प्रत्यय) का लोप होता है । उदा.वाहिप्पइ । (विकल्प-पक्ष में) वाहरिज्जइ।
आरमेराढप्पः ॥ २५४ ॥ आङ् पूर्वस्य रभेः कर्मभावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लक । आढप्पइ । पक्षे । आढवीअइ।
कर्मणि और भावे रूपों में, आ (उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले रम् धातु को बाढप्प ऐसा आदेश विकल्प से होता है, और ( उसके सानिध्य में ) क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा.-आढप्पइ । (विकल्प-) पक्ष में:-आढवीअइ ।
स्निहसिचोः सिप्पः ।। २५५ ।। अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादेशो भवति क्यस्य च लुक् । सिप्पइ । स्निह्यते सिच्यते वा।
कर्मणि और भावे रूपों में ( स्निह, और सिच् ) इन धातुओं को सिप्प ऐसा आदेश होता है, और (उसके सानिध्य में) क्य (प्रत्यय) का लोप होता है । उदा.सिप्पइ (यानी) स्निह्यते अथवा सिच्यते (ऐसा अर्थ है)।
अहेर्धेप्पः ॥ २५६ ॥ ग्रहः कर्मभावे धेप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लुक । धेप्पइ । गिण्हिज्जइ। ___कर्मणि और भावे रूपों में, ग्रह, धातु को धेप्प ऐसा मादेश विकल्प से होता है, और (उसके र्सानिध्य में) क्य (प्रत्थय) का लोप होता है। उदा०--घेप्पइ । (विकल्पपक्ष में) गिणिज्जइ।
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