________________
प्रथमः पादः
इत्वे वेतसे ॥ २०७॥ वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति । वेडिसी। इत्व इति किम् । वेअसो। इ: स्वप्नादौ ( १.४६) इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिबलात् ।
वेतस शब्द में ( त में से अ का ) इ होने पर, त का ड होता है। उदा०- - वेडिसो। इ होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ऐसा न होने पर, त का ड नहीं होता है । उदा० ) वेअसो। ( प्रस्तुत सूत्र में ) इत्व होने पर ऐसे जो शब्द हैं उनके व्यावृत्ति करने के सामर्थ्य के कारण ( 'वेअस' इस वर्णान्तर में ) 'इ: स्वप्नादो' सूत्र के अनुसार ( अ का इ ) नहीं होता है।
गर्भितातिमुक्तके णः ॥ २०८ ॥ अनयोस्तस्य णो भवति । गम्भिणो ! अणिउँतयं । क्वचिन्न भवत्यपि । अइमत्तयं । कथम् एरावणो । ऐरावणशब्दस्य । एरावओ इति तु ऐरावतस्य ।
गभित और अतिमुक्तक इन दो शब्दों में त का ण होता है । उदा.-गब्भिणो ... .. उतवं । क्वचित् ( ऐसा त का ण ) नही भी होता है। उदा०-अइमुत्तयं । (प्रश्न:-) एरावण शब्द कैस सिद्ध होता है ? ऐरावत शब्द में त का ण होकर सिद्ध होता नहीं क्या ? उत्तर :- ) ऐरावण शब्द का रूप है ( एरावण ); एरावमओ ( वर्णान्तर ) मात्र ऐरावत शब्द का है ।
रुदिते दिना णः ॥ २०९ ॥ - रुदितं दिना सह तस्य विरुक्तो णो भवति । रुण्णं । अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि । ऋतुः । रिऊ उऊ । रजतम् रययं । एतद् रमं । गतः गओ। आगतः आगओ। सांप्रतम् संपयं । यतः । जओ। ततः तओ। कृतम् कयं । हतम् हयं । हताशः हयासो। श्रुतः सूओ। आकृतिः आकिई । निवृतः निव्वुओ। तातः ताओ। कतरः कयरो । द्वितीयः दुइओ। इत्यादयः प्रयोगा भवन्नि। न पुनः उद्। रयदं इत्यादि । क्वचित् भावेपि व्यत्ययश्च
( ४.४४७) इत्येव सिद्धम् । दिही इत्येतदर्थं तु धृतेदिहिः (२.१३१ ) इति ... वक्ष्यामः ।
रुदित शब्द में दि के साथ त का ण्ण-द्विरुक्त ण --होता है । उदा०-रुण्णं । इस स्थल पर 'ऋत्वादिषु द ' ( - ऋतु इत्यादि शब्दों में त का द होता है, इस ) नियम का प्रारंभ कुछ ( वैयाकरण ) करते हैं, परंतु वह नियम शौरसेनी और मागधी भाषा के बारे में ही दिखाई देता है; इसलिए ( वह नियम यहाँ ) हमने कहा नहीं
१. ऋतु । रजत।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org