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प्राकृतव्याकरणे
अक्लीवे सौ ॥ १६॥ इदुतो क्लीबे नपुंसकादन्यत्र सौ दी| भवति । गिरी। बुद्धी। तरू। घेणू। अक्लोब इति किम् । दहिं महु। साविति किम् । निरि बुद्धि । तर घेणुं। केचित्तु दीर्घत्वं विकल्प्य तदभावपक्षे सेर्मादेशमपीच्छन्ति । अग्गि। निहिं । वाउं । विहु।
नपुंसकलिंग न होने पर ( यानी ) नपुंसकलिंग छोड़कर, अन्यत्र ( यानी पुलिाग और स्त्रीलिंग होने पर, शब्द के अन्त्य ) इ और उ इनके आगे सि ( प्रत्यय ) होने पर. ( उसके पिछले इ और उ इनका ) दीर्घ ( यानो ई और क ) होता है । सदा.गिरी..." घेण । नपुंसकलिंग न होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इकारान्त
और उकारान्त शब्द नपुंसकलिंग में हो, तो इ और उ इनका दीर्घ नहीं होता है। उदा.-) दहि, महु । सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा न होने पर, इ और उ इनका दीर्घ नहीं होता है। उदा०-- ) गिरि 'घेणुं । परन्तु कुछ वैयाकरण मानते हैं कि (इ और उ इनका) दीर्घ होना वैकल्पिक है; और ( ऐसे दीर्घत्व के ) अभाव-पक्ष में, सि ( प्रत्यय ) को म् ऐसा आदेश होता है। उदा०–अरिंग.... विहुँ।
पुंसि जसो डउ डओ वा ॥ २० ॥ इदुत इतीह पञ्चम्यन्तं सम्बध्यते। इदुतः परस्य नसः पुंसि अउ अओ इत्यादेशौ हितौ वा भवतः। अग्गउ अग्गओ। घायउ वायओ चिटठन्ति। पक्षे। अग्गिणो। वाउणो। शेषे अदन्तवद्भावाद् अग्गी । वाऊ। पुंसीति किम् । बुद्धीओ। घेणूओ। दहीइं। महूई। जस इति किम् । अग्गी अग्गिणो वाऊ वाउणो 'पेच्छइ । इदुत इत्येव । वज्छा।
'इदुतः' यह शब्द यहाँ पञ्चमी-विभक्ति प्रत्ययान्त लेकर ( इस सूत्र के शब्दों से ) जोड़कर लेना है । ( फिर इस सूत्र का अर्थ ऐसा होता है:-) ( शब्द के अन्त्य ) इ और उ इनके आगे, पुल्लिग में, जस् प्रत्यय ) को अउ और अओ ऐसे डित आदेश विकल्प से होते हैं। उदा-अग्गउ....."चिट्ठन्ति ( विकल्प- ) पक्ष में:अग्गिणो, वाउणो । ( ये शब्द ) उर्वरित ( रूपों ) के बारे में, अकारान्त शब्द के समान होने के कारण, ( उनके ) अग्गी, वाऊ ( ऐसे रूप होते हैं । । पुल्लिग में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पुल्लिग न होने पर, जस को ऐसे आदेश नहीं होते हैं। उदा०-) बुद्धीओ'...'महूई । जस । प्रत्यय ) को ( आदेश होते हैं ) ऐसा क्यों १. क्रमसेः-/अग्नि । / निधि । / वायु । /विधु ।
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