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अध्याय १ -- पृष्ठभूमि
तहनपाल के पन्द्रह पुत्रों में से ज्येष्ठ मदनपाल के वंशजों का राज्य धौलपुर में, उनमें से छोटे धर्मपाल का राज्य करौली में और तीसरे भुवनपाल के वंशजों का राज्य भरतपुर में बताया गया है। यादववंश या यदुवंश से इस बात की पुष्टि होती है । जाट लोग अपने को यदुवंशी कहते हैं। कहा जाता है कि जाटों में विवाह करने के कारण ये लोग जाट कहलाये। करौली के राजा तो अब तक यादव राजपूत हैं । अतएव इन तीनों राज्यों में एक ही वंश की तीन शाखाएँ प्रतिष्ठित हैं।' प्रस्तुत भौगोलिक स्थिति के अनुसार, जो चित्र के आधार पर सन् १७५० ई० से अभी तक उसी रूप में है, हम अपने प्रदेश को ब्रजमंडल
और मेवात, दो भागों में विभाजित कर सकते हैं । साहित्य की दृष्टि से मेवात कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखता। इसका कारण यहां के निवासियों का धर्म-परिवर्तन हो सकता है । ___ ऊपर दिये विवरण के अनुसार मत्स्य-प्रान्त में जाट और राजपूतों का होना तो आवश्यक है ही-ये ही राज-परिवार हैं । सिनसिनी और बमरौली ख्यातिप्राप्त स्थान हैं और इन स्थानों का इतिहास भी गौरवमय है। इनके अतिरिक्त इन राज्यों में, विशेषतः अलवर और भरतपुर में, मेवों की संख्या काफी रही। मेव वे लोग हैं जो मुस्लिम काल में हिन्दू से मुसलमान बनाये गये। इनके रीति-रिवाज़ हिन्दुओं से बहुत मिलते-जुलते हैं। विवाह के समय जहाँ मौलवी निकाह पढ़ाता है वहाँ पंडित फेरे भी डलवाते हैं । भरतपुर राज्य में एक पंडित 'काजीजी' कहलाते थे क्योंकि उन्हें मुसलमानों के विवाह को दक्षिणा मिलती थी। मेवों के नाम भी हिन्दुओं की तरह से ही होते हैं। स्त्रियों में 'चन्द्रवदनी', पुरुषों में 'सूरज', 'नारान' इस प्रकार के नाम 'अब भी मिलते हैं। कालांतर में इन्हें 'सूरज खां' और नारान खां' में बदल दिया गया। किन्तु आज तक मेवों की बहुत-सी बातें हिन्दुओं से मिलती-जुलती हैं। भारत का विभाजन होने से पूर्व मुस्लिम लीग का जो प्रचार हुया उसके कारण मेवों की भावना परिवर्तित हो गई, उनमें कट्टरता आ गई और हिन्दुओं को वे अपना शत्रु समझने लगे। हमें वह समय याद है जब मेव तथा मुसलमानों के सम्मिलित लम्बे-लम्बे जलूस निकलते थे, जिनमें पाकिस्तान की मांग की जाती थी। एक
१ जनरल कनिंघम-बयाना राजवंश की खोज । २ कहा जाता है, मेव मेवाड़ के आदि निवासी थे। जब मीणे, भील, गूजर लोगों को मेवाड़ से निकाला तो वे आमेर के पहाड़ों में आये और धीरे-धीरे फैलते गये। महमूद गजनवी के
समय में ये मुसलमान हए और मेव कहलाये। 3 इस प्रथा के अन्तिम काजी स्व. पं० लक्ष्मीनारायण शास्त्री थे।
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