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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
भरत के अनुसार ये आठों स्थायी इस प्रकार हैं
अथ अष्ट स्थाई निरूपणम् ---
रति हांसी अरु शोक क्रोध उत्साह है।
भय निंदा विस्मय जु काव्य के थाह है ॥
शान्त रस का स्थायी 'निर्वेद' नहीं दिया गया है । हास्य के स्थायी ‘हास' का वर्णन देखेंहास-लक्षण
कौतूहल करि वचन औ, वेस होइ विपरीति ।
मन विकार परमित जहां, सोई हास प्रतीति ।। उदाहरण श्रावत ही पुर के ढिंग बालक , छाए चहू दिसि देषि सुरेस को। देखि के भूप के मौंन कह्यौ , मिलि दासिनि आयौ है बावन भेस को ।। सो सुनि वानी कुतूहल तें , बलिराज तिया कहै देह री रासकौं।
ह्व मुसिक्यावन वावन सो जग , पालक रक्षक भूप बजेसको ।। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने 'रस प्रदीपका'' नामक पुस्तक का अध्ययन किया था और इससे प्रभावित भी हुए थे
करुणा रस को लक्ष्य यह. यातें कहौं सुनाइ।
रसप्रदीपका में कह्यौ, सो अब देहु दिषाइ ।। सवैया- कोमल बोल विलाप को कीनें है, जीवित नाथ तू जीव कहीं पर ।
ता रति नें उठि के ढिगं आइ, महा विलषाइ लै हा यह प्रोसर । सोक समुद्र में बूढ़ि गई लई, दीन दसा कही नाथ हत्थी हर । कोप की ज्वाल में भस्म भयौ, पुरसाकृत काम विलोक्यौ मही पर ।।
सरी तरंग के केवल १५ ही छंद मिले ।
१ रसप्रदीपका नाम का कोई ग्रंथ नहीं मिलता। 'रसदीपिका' नामक एक ग्रन्थ मिलता है। संभव है कवि द्वारा जो ग्रंथ रसप्रदीपका देखा गया था वह अब लुप्त है।
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