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(iv) और अन्त में :
श्रध्याय ४
भक्ति काव्य
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वचन सारिका के सरस विंग सहित ए जान निज निज मंदिर प्रति गईं सषी सकल गुनषान ।
(v) राम सिया की जोड़ी का एक दर्शन :
बाम अंग राम के विराजत विदेह सुता, लाजत मदन कोटि सोभा दरसाये तें । मानो धन दामिनी अनूप बपु धारे दुहू, राज परजंक पे सुहाग सरसाये तें । भीजे निसिवासर रसीले रंग रीझे मिलि दंपति परस्पर सुगंध बरसाये # 1 संपति सुरेसहू की फीकी सी लगत सेस बरने बने न कोटि मुषहू के गाये तं । (vi) और अब वियोग में भी राम को देखिए :
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इमि कोप सहित रघुपति उदार । गहि वान बहुरि उर किय विचार ॥ ए मृगी नैन सिय हग समान । यह दया लागि त्याग न
वान ||
हुव उदय चंद्र मंडल जिमि प्रलय काल
को
बोले
मंडल
तात ?
लषि ताहि राम यह उदय भानु सौमित्र विलोकहु ताहि निजि किरणन तें सम दहत कहुं सीतल तर छाया निहारि तिहि सेवन कीजै निकट वारि ॥
गात ।
(vii) इस ग्रन्थ में और भी अनेक प्रसंगों का उत्तम वर्णन मिलता है ।
ग्रहो वालि के नंद आनंदकारी । दसग्रीव तें संधि जो में उचारी ॥ करी तें वलब्बीर के नाहि अब्बै । कहो भेद मोसों महावाहु सब्बै ।। त बालिको पुत्र हूयीं तुल्ल्यो । करज्जोरि के राम सो बैन बुल्ल्यौ । दसग्रीव सों सर्वथा संधि नाहीं । धरो जुद्ध की चाहना चित्त सांही ॥
प्रचंड |
मारतंड |
बिहाल |
कराल ||
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