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श्रध्याय ७ - अनुवाद - ग्रंथ
और स्त्री जो कहे ताकी प्रतीत न कीजिये और इनों ते मन का भेद न कहिए । लुगाई के बस न हो जाइये । राजन के हित की प्रतीत न कीजिये । १
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फारसी की अधिक पुस्तकों के अनुवाद प्राप्त नहीं हो सके । मत्स्य के पुस्तकालयों में उर्दू विभाग देखने से पता लगता है कि फारसी ग्रंथों का उर्दू भाषा में अनुवाद अधिक हुआ । इन सभी बातों से पता लगता है कि मत्स्य के राजा वास्तव में साहित्यसेवी थे । हिन्दी और संस्कृत को तो प्रोत्साहन मिलता ही था, फारसी और उर्दू पर भी उनकी कृपा रहती थी । भरतपुर तथा अलवर के पुस्तकालयों एवं संग्रहालयों में उर्दू और फारसी के अनेक हस्तलिखित ग्रंथ मिले । अलवर का संग्रह तो बहुत ही मूल्यवान् समझा जाता है । फारसी की कुछ प्रतियां तो सहस्रों रुपये के मूल्य की हैं। यहां संस्कृत की पुस्तकें भी बहुत बड़ी संख्या में हैं । मत्स्य के कवियों ने अनुवाद करते समय संस्कृत ग्रंथों की ओर विशेष ध्यान दिया और यदि ये सभी अनुवाद एकत्र हो जायें तो हिन्दी साहित्य के लिए बड़ी ही गौरव की बात हो ।
एक बात विशेष रूप से देखी गई । सोमनाथ, देविया, गोवर्द्धन, रसानंद आदि अनुवादकर्ता उच्चकोटि के कवि भी थे । ग्रतः इन अनुवादों में पद्यकी प्रधानता है । गद्यानुवाद बहुत कम मिलते हैं और वे भी साधारण कोटि के । फिर, हिन्दुओं के धार्मिक संस्कृत ग्रंथ पद्य में अधिक हैं और अनुवादक यही ठीक समझते थे कि उन ग्रन्थों की पद्यात्मकता नष्ट न होने पावे । यो कविजन अनुवाद के क्षेत्र में भी अपना काव्य चातुर्य प्रदर्शित कर सकते थे किन्तु यह मानी हुई बात है कि इस तरह अनुवाद का स्तर ऊँचा रखना बहुत कठिन है । फिर भी, मत्स्य के साहित्यकारों द्वारा अनुवाद के क्षेत्र में संतोषजनक कार्य हुआ ।
' कलकत्ता मदरसा के एच० ब्लाकमैन के द्वारा किये गये आईने अकबरी के अंग्रेजी अनु वाद में ये प्रसंग इस रूप में नहीं मिले ।
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