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उपसंहार
शिष्याएं थीं जिनका किसी भी प्रकार की राज्य सहायता से कोई सम्बन्ध नहीं था । परंतु अधिक संख्या उन्हीं साहित्यकारों की थी जो नियमित रूप से राजाओं द्वारा सहायता प्राप्त करते रहते थे ।
श्रध्याय ८ --
साहित्यकारों में प्रमुखत: ब्राह्मण थे और उनमें भो विशेष रूप से 'चौबे ' । अन्य वर्गों के व्यक्ति भी मिलते हैं जैसे बलदेव वैश्य, रसानंद जाट, चतुर्भुजदास कायस्थ, अलीबख्श रांगड मुसलमान, देविया खवास आादि । परन्तु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम थी। कविता करने का स्थान राजानों का प्रधान नगर होता था । कुछ कवि अन्य विशेष स्थानों जैसे वैर, राजगढ़, डीग, बसवा, माचेड़ो, मंडावर ग्रादि में भी निवास करते थे किन्तु वहाँ भी उनका संबंध ठिकानेदारों ग्रथवा राजकुमारों से होता था । राज्यश्रित कवियों के अतिरिक्त कुछ राजा स्वयं भी अच्छे कवि थे— भरतपुर के महाराज बलदेवसिंह, अलवर के महाराव बख्तावर सिंह और विनय सिंह, मंडावर के राव अलीबख्श, करौलो के राजकुमार रतनपाल और भरतपुर की महारानी अमृतकौर स्वयं ही साहित्यकार थीं। कुछ कृतियां देखने पर इन राजाओं की रचनाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि इन पुस्तकों का राजाओं द्वारा लिखा जाना संभव नहीं हो सकता है, इन्हें उनके श्राश्रित कवियों ने रच कर अपने आश्रयदाता के नाम से चलाया हो । यह बात दृढ़ता के साथ कही जा सकती है कि मत्स्य-प्रदेश के राजाओं ने कला तथा कलाकारों को बहुत प्रोत्साहन दिया ।
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जो साहित्य मुझे मिला उसमें से बहुत कुछ ऐसा है जिसे हिन्दी - साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान का अधिकारी कहा जा सकता है । इसमें से कुछ कृतियों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है
१. नवधाभवित- रागरस सार- यह ग्रन्थ न केवल ३६,००० रु० का पुरस्कार प्राप्त कर सका प्रत्युत नवधा भक्ति और रस के प्रतिरिक्त रागों की व्याख्या करने में पूर्ण रूप से सफल हुग्रा । हिन्दी साहित्य में इस प्रकार की पुस्तकें बहुत ही कम मिलती हैं ।
२. बलभद्र के 'सिखनष' पर टीका- ग्राज तक समस्त हिन्दी संसार यहो जानता रहा है कि बलभद्र के सिखनष पर सबसे प्रथम टीका गोपाल कवि द्वारा संवत् १८६१ वि० में हुई। किंतु हमारी खोज ने यह सिद्ध कर दियो है कि इस टीका से ५० वर्ष पूर्व ही संवत् १८४२ वि० में मनीराम कवि द्वारा इस ग्रंथरत्न की टीका की जा चुकी थी । कवि मनीराम ने यह टीका मत्स्य - प्रदेश में ही की और इनकी टोका को एक सफल ग्रंथ मानने में किसी प्रकार संदेह नहीं
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