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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी-साहित्य को देन
गए । गुरु के पास समस्त काव्य-अंगों का अध्ययन किया और काव्य-कला में अतिप्रवीण हुए। यह महाराजा विनसिंहजो के सभासद थे। कौंसिल के समय भी यह उनके मुसाहिब थे। कवि जयदेव ने इनसे ही काव्य-कला. सीखी। अलंकार, ऋतुवर्णन, प्रकृतिनिरीक्षण में इनकी विशेष अभिरुचि थी। अनप्रास की ओर भी इनका झुकाव था। शृगार रस इन्हें विशेष प्रिय था और उसके दोनों पक्ष इनकी कविता में मिलते हैं। सं० १९२४ में इनका शरीर शान्त हया। कवि ईश्वरीसिंह ने अपने काव्य में 'माधव' कवि की अनेक बातों का उल्लेख किया है। लिखते हैं
१ अलंकार रस आदि काव्य के सकल अंग पढ़ि।
भे प्रवीण सब भांति शक्ति रचना में बहु बढ़ि। वर कविता नर वानि करत 'माधव' स्वनाम धरि । अलवर जनपद मांहि नाहि कोऊ जो करे सरि ।। अडस बरस की प्राय अब स्नान करत नित शीत जल। पुनि षोड़शाब्द मोते बड़े तोहू सकल इन्द्रिय सबल ।। २ तनमन ते विनयश नृपति को सेवा बहु किए।
तेरह हय जागीर प्राम मय पटा माहि दिए । पुनि शिवदान भुपाल भये बिनयेश सुधन जब ।
अहद अजन्टी मांहि भयौ मन जनक मुसाहिब ।। 'माधव' कवि की रचना
१ इकन्त विलोकि अनन्दित होय दुकूलन दूर किए प्रति प्रीति ।
समाधि के हेत विधान अनेकन साधत प्रासन प्रेम प्रतीति ।। मिल्यो गुरु ए री विदेह मनो दई 'माधव' ताने अद्वैतता नीति । निरन्तर सीकर मंत्र जप लखी सब भोग में जोग की रीति ॥ २ नहीं गाजत बाजत दुंदभि है चपला न कढी तलवार अली।
धुरवा न तुरंग ये 'माधव' चातक मोर न बोलत वीर बली ।। जलधार न जार शिलीमुख को घन है न मतंगन की अवली।
बरसा न बिचारि भटू शिव पं सज साज मनोज की फौज चली ।। ३ कविराव गुलाबसिंह
इनका जन्म संवत् १८८७ है। इन्होंने संस्कृतकाव्य का गम्भीर अध्ययन किया और उसके उपरांत हिन्दी भाषा की ओर भी यथेष्ट ध्यान दिया। महाराव राजा शिवदानसिंहजी ने इन्हें अपना मुख्य राजकवि नियुक्त किया। बूंदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल से इनका संस्कृत, काव्य पर विवाद हुआ और थोड़े समय तक प्रापस में विचार परिवर्तन और पालो. चना-प्रत्यालोचना होती रही। अन्त में इन्होंने सूर्यमल्लजी के हृदय पर गम्भीर प्रभाव डाला और दोनों मित्र बन गए। सूर्यमल्लजी से प्रशंसा सुन कर बूंदी नरेश रामसिंहजी भी इन पर बहुत मुग्ध हुए और कुछ दिनों के पश्चात् इन्हें बूंदी बुला लिया गया और यह वहीं रहने लगे। बूंदी नरेश इनका बहुत प्रादर करते थे। 'रसिक कवि-सभा' कानपुर की ओर से इन्हें 'साहित्य
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