Book Title: Matsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Author(s): Motilal Gupt
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 259
________________ अध्याय ६ गद्य-ग्रंथ अलवर में प्राप्त 'अकल नामा' भाषा के रूप की दृष्टि से पिछड़ा हुआ मालूम होता है, इसमें जगह-जगह अलवरी बोलचाल की भाषा के रूप मिलते हैं, परन्तु स्थान-स्थान पर खड़ी बोली भी दिखाई देती है । - २४० 'पातसाह साहजिहां कैद में थे । तहां श्रालमगीर ने जाय अरज करी । जो प्राप तौ आठ दिन अदालत बैठते थे। घर मैं तौ नित अदालत करता हूं | साहजिहां कही हम ग्राठवै दिन अदालत करते तब नकीब फिरीयादी कूं बलावता सो कोई प्रावता नहीं । अरु तुम नित अदालत करते हो, तिस फिरयादी बाकी रहत हैं । कुछ अन्य वाक्य किसान को कहुत रियायत करणी । गई वस्तु का सोच कधी न करिये ॥ १ 'ईश्वर को मनते न भुलाइये । बिना उपदेस और भली चर्चा के मुषते कोई वचन नहीं काडिये । बालक और स्त्री जो कहे ताकी प्रतीत न कीजिये । और इनौते मन का भेदन कहिये । संवत् १९१० के आस पास का गद्य भी देखिए जो 'सुजान चरित्र' की प्रस्तावना के रूप में दिया हुआ हैं ...........प्रप्ने मन्कू बढ़ावे कि इस सम में अबके मनुष्यों से जैसी सूरवीरता होनी कठन है जो इस पौथी के षोधने में बहुत श्रम हुआ है । पहले तो श्री महाराज सुरग गामी नै प्रप्ने श्रागे श्राप उस्का एक एक अक्षर भैसा शौधा कि उस्के आगे पोथी असल में अशुद्धता विशवास होता था किस वास्ते कि श्राप भाषा में बहुत समझते थे और बनाते थे कि बड़े बड़े पंडत कवीश्रुर सराहना करते थे और उस पौथी के शोधने समें उन्कू चाहना दूसरी पोथी की भी नहीं होती थी । और पीछे सुर्गवाशी होने महाराज के पंडत गोर्द्धनदास व लाला छोटेलाल और लाला बांकेलाल ने कि इस पोथी कूं लिखा है इसके शोधने में बहुत श्रम प्रयाः।" यहाँ भी भाषा का रूप कुछ आगे बढ़ता दिखाई नहीं देता । वैसे यह भाषा इंशा और सदासुखलाल से लगभग ५० वर्ष बाद की भाषा है किन्तु - इसमें शिथिलता और अव्यवस्था स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं । राजानों की सीधी देख रेख में प्रणयन होने पर भी राजघराने की यह पुस्तक गद्य का निखरा रूप नहीं पा सकी । ऐसा प्रतीत होता है कि मत्स्य प्रदेश में गद्य का विकास उस तेजी के साथ नहीं हुआ जैसा अंग्रेजी इलाकों में हुआ । गद्य की भाषा जिस १ अलवर सम्बन्धित प्रयोग । २ क्रियाओं में खड़ी बोली अपना काम करती दिखाई दे रही है । ये रूप मुसलमानी प्रसंगों में ही अधिक मिलते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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