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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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रूप में थी उसी में चलती रही। इसके लिए न राजाओं का ध्यान था और न लेखकों का । सम्भव है उस समय राज दरबारों में गद्य को प्रोर यही मनोवृत्ति रही हो । अंग्रेजों को तो ईसाई धर्म का प्रचार करना था । उन्हें क्लर्क इकट्ठे करने थे तथा लोगों की भाषा में उनके साथ घनिष्ठता स्थापित करनी थी । देशी राज्यों में इस प्रकार की कोई आवश्यकताएं न थीं । अतएव गद्य अपनी मनमानी गति से चलता रहा । राज्य की ओर से भी गद्य-विस्तार के लिए कोई विशेष प्रबंध न था क्योंकि साहित्य की दृष्टि से केवल पद्य को ही सम्मानपूर्ण स्थान दिया जाता था । कवियों से पद्य सुनने की प्राशा की जाती थी और इसी आधार पर पुरस्कार-सत्कार आदि की व्यवस्था होती थी । श्रतः यह स्वाभाविक ही था कि गद्य की ओर विद्वानों का ध्यान नहीं गया । वह बोलचाल की भाषा के रूप में ही चलता रहा । जिस गति से ब्रिटिश प्रांतों में गद्य को प्रोत्साहन मिला और उसकी वृद्धि हुई वह देशी राज्यों में न हो सका ।
खोज में एक अधूरी पुस्तक 'बैराग सागर' मिली । लेखक के नाम का पता नहीं लगता । इस पुस्तक में अनेक भक्तों की कहानियां दी गई हैं और ये भक्त प्रायः बल्लभसम्प्रदाय के हैं । अतः पुस्तक का लिखने वाला कोई वल्लभकुली होगा । सूरदासजी के संबंध में दी गई वार्ता देखिए-
'दोऊ नेत्रन करि हीन एक व्रजवासी कौ लरिका व्रज में सूरदास । सो होरी के भंडउवा बनाव ह वै तुकिया । ताके वासतै श्री गुसाई जी सौ जाय लोगनि नै कही । तां पर श्री गुसाईजी वा लरिका को बुलाय वाके भड़उवा सुने हंसे श्री मुष ते कह्यौ जु लरिका तू अब भगवत जस बनाय । श्री भागवत अनुसार । प्रथम जनम की लीला गाय । तब वाने कही राज हू कहा जानौ । तब प्राग्या करी भगवत इच्छा है तू नागौ । से श्री गुसाई जी की प्राग्या तै भगवत लीला भ्यासी । सरस्वती जि
भई । प्रथम ही प्रथम श्री सूरदासजी श्रीजी जनम लीला की बधाई बनाई । रु श्री गुसाईजी को सुनाई । तब बहौत प्रसन्न भये । कंठी दुपटा भट्टा प्रसाद दयौ । अरु सबनि सौ प्राग्या करी जु श्री ठाकुरजी की आग्या तै हम कहत हैं । बरस पै दिन जनमाष्टमी की जनमाष्टमी श्री गोवर्द्धननाथजी के आगे प्रथम एक ही बधाई गावैगे सो अब लौ एक ही गावत है
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राग श्रासावरी
ब्रिज भयो महर के पूत जब यह बात सुनी। सुनि आनंद सब लोक गोकुल गुनित गुनी ॥ ग्रह लगन नछित वल सोधि कीनी वेद धुनी ।
आदि ।
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