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________________ मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन २४१ रूप में थी उसी में चलती रही। इसके लिए न राजाओं का ध्यान था और न लेखकों का । सम्भव है उस समय राज दरबारों में गद्य को प्रोर यही मनोवृत्ति रही हो । अंग्रेजों को तो ईसाई धर्म का प्रचार करना था । उन्हें क्लर्क इकट्ठे करने थे तथा लोगों की भाषा में उनके साथ घनिष्ठता स्थापित करनी थी । देशी राज्यों में इस प्रकार की कोई आवश्यकताएं न थीं । अतएव गद्य अपनी मनमानी गति से चलता रहा । राज्य की ओर से भी गद्य-विस्तार के लिए कोई विशेष प्रबंध न था क्योंकि साहित्य की दृष्टि से केवल पद्य को ही सम्मानपूर्ण स्थान दिया जाता था । कवियों से पद्य सुनने की प्राशा की जाती थी और इसी आधार पर पुरस्कार-सत्कार आदि की व्यवस्था होती थी । श्रतः यह स्वाभाविक ही था कि गद्य की ओर विद्वानों का ध्यान नहीं गया । वह बोलचाल की भाषा के रूप में ही चलता रहा । जिस गति से ब्रिटिश प्रांतों में गद्य को प्रोत्साहन मिला और उसकी वृद्धि हुई वह देशी राज्यों में न हो सका । खोज में एक अधूरी पुस्तक 'बैराग सागर' मिली । लेखक के नाम का पता नहीं लगता । इस पुस्तक में अनेक भक्तों की कहानियां दी गई हैं और ये भक्त प्रायः बल्लभसम्प्रदाय के हैं । अतः पुस्तक का लिखने वाला कोई वल्लभकुली होगा । सूरदासजी के संबंध में दी गई वार्ता देखिए- 'दोऊ नेत्रन करि हीन एक व्रजवासी कौ लरिका व्रज में सूरदास । सो होरी के भंडउवा बनाव ह वै तुकिया । ताके वासतै श्री गुसाई जी सौ जाय लोगनि नै कही । तां पर श्री गुसाईजी वा लरिका को बुलाय वाके भड़उवा सुने हंसे श्री मुष ते कह्यौ जु लरिका तू अब भगवत जस बनाय । श्री भागवत अनुसार । प्रथम जनम की लीला गाय । तब वाने कही राज हू कहा जानौ । तब प्राग्या करी भगवत इच्छा है तू नागौ । से श्री गुसाई जी की प्राग्या तै भगवत लीला भ्यासी । सरस्वती जि भई । प्रथम ही प्रथम श्री सूरदासजी श्रीजी जनम लीला की बधाई बनाई । रु श्री गुसाईजी को सुनाई । तब बहौत प्रसन्न भये । कंठी दुपटा भट्टा प्रसाद दयौ । अरु सबनि सौ प्राग्या करी जु श्री ठाकुरजी की आग्या तै हम कहत हैं । बरस पै दिन जनमाष्टमी की जनमाष्टमी श्री गोवर्द्धननाथजी के आगे प्रथम एक ही बधाई गावैगे सो अब लौ एक ही गावत है Jain Education International राग श्रासावरी ब्रिज भयो महर के पूत जब यह बात सुनी। सुनि आनंद सब लोक गोकुल गुनित गुनी ॥ ग्रह लगन नछित वल सोधि कीनी वेद धुनी । आदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003396
Book TitleMatsyapradesh ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotilal Gupt
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1962
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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