________________
मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
२४३
का एक छंद देखिए--
ब्रज चक्रति कुमार गुनगन गहर सागर गाजई । श्री रामचरणसरोज अलि परतापसिंह विराजई॥ तेहि हेत रामायण मनोहर कवि कलानिधि ने रच्यो।
तहं युद्ध काण्ड व्यासि में पुनि इन्द्रजित गर्जन मच्यो । इस छंद को मूल श्लोक से मिलाइये
अथेन्द्रजिद्राक्षसभूतये तु जुहाव हव्यं विधिना विधान वित् । दृष्ट्वा व्यतिष्ठन्त च राक्षसास्ते महासमूहेषु नयानयज्ञाः ।।
( सर्ग ८२ - श्लोक २८ अंतिम श्लोक ) इस बयासीवें अध्याय में बताया गया है कि मेघनाद ने राक्षसों की शक्ति को बढ़ाने के लिए पुनः यज्ञ किया।
अपने आश्रयदाता कुमार प्रतापसिंहजी के हेतु कवि कलानिधि ने रामायण के जिन काण्डों का भाषा में प्रकाश किया उनमें स्वयं कवि की काव्य-प्रतिभा भी गौण नहीं है।
संवत् १८०५ का लिपिबद्ध 'भाषा कर्ण-पर्व' अलवर की खोज में मिला। इसके प्रथम दोहे से पता लगता है कि इस पर्व की भाषा करने वाला कोई गोवर्द्धन नाम का कवि था"श्री गणेशाय नमः अथ भाषा कर्णपर्व लिष्यतेदोहा- गणपति गवरि गिरीस गुर, समर सारदे माय ।
कर्ण-पर्व भाषा करत, गोवर्द्धन कवि गाय ॥" इस पुस्तक में प्रारम्भ तथा अंत में कुछ टिप्पणियां भी मिलती हैं, जो संभवत: किन्हीं अन्य व्यक्तियों द्वारा दी गई हैं । पुस्तक अधूरी ही रह जाती है और उसके अंत में एक नोट लिखा है जिससे संवत् आदि का पता लगता है
'कर्न पर्व इतनौ ही छ । सं० १८०५ असाढ़ सुदि ४ लिषी पोथी हरिरामकान्हजी षवास दीन्ही ।'
इस नोट के आधार पर पता लगता है कि यह अनुवाद संवत् १८०५ के. पहले ही हुआ होगा। लिपिकार को पूरा अनुवाद नहीं मिल सका, पता नहीं अनुवादक ने इतना ही अनुवाद किया अथवा अनुवाद का कुछ अंश लुप्त हो गया । लिपिकार को 'इतनौ हो छै' कह कर संतोष करना पड़ा। यह हस्तलिखित ग्रन्थ बहुत ही अस्पष्ट लिपि में है और अक्षरों की बनावट भी बहुत बेढंगी है । कर्ण को किस प्रकार सेनापति के पद पर नियुक्त किया गया इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org