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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
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'हितामतलतिका' नाम से मिला । यह अनुवाद भरतपुर के महाराज बलवंतसिंह के लिये किया गया था। इस पुस्तक की पत्र संख्या १३३ है । इस ग्रंथ में विभिन्न प्रसंगों को इस 'लतिका' की शाखा, दल अादि कहा गया है। कवि का कथन है
पाटव पुर हरि सस्त्र नप तिह कृत हित उपदेस । वाचा परम विचित्र जह नीति अनेक नरेस ।। तिहि के मत अनुसार मैं नृप वजेस के हेतु । हित अमृत लतिका करूं सुमरि उमा वृषकेतु ।। साखा नीति अनेक बढि भई हित अमत बेलि ।
जान सजीवन रामकवि कीनी इकत् सकेलि ।।' ___ इस लतिका में चार दल हैं। किसी भी दल के अंत में वर्ण्य-विषय की ओर संकेत नहीं किया गया है । केवल इतना हो कहा है "..." हितामृतलतिकायां (अमुक) दल समाप्तम्" । प्रकरण ये हैं
मित्त लाभ सज्जन सुमिति, विग्रह संधि उपाय ।
बग्नौ यह में पांच विधि अपरग्रंथ मत लाय ।। अनुवाद की दृष्टि से मिलाने योग्य कुछ अवतरण'पूछौ जो कछु मुहि अपर बात । मैं कहौं तुम्हारे हेत तात ।।
"अपरं किं कथयामि कथयताम् ।" मूरष को सिष दिये हानि अपनौ हित सब सु होई । ज्यौं बानर सिष दय षगन अपनी बुधि तं थल षोई ।। मूल-विद्वानेवोपदेष्टव्यो नाविद्वांस्तु कदाचन ।
___ वान रानपदिश्याथ स्थानभ्रष्टा ययुः खगाः ।। हितोपदेश-देविया षवास' का लिखा हुआ । हितोपदेश के इस अनुवाद में 'विग्रह', 'संधि' नाम के केवल दो प्रसंग मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रति बिक्रो हेतु लिखी गई थी। इसके ऊपर लिखा है-'हितोपदेश भाषा कलमी
१ रामकवि के संबंध में कुछ वर्णन रीतिकाव्य के अंतर्गत मिल सकेगा--विशेषतः 'छंदसार'
के प्रसंग में। २ देविया खवास कवि श्रेष्ठ रसानंदजी का खवास था। सत्संग का सुन्दर प्रभाव यदि देखना हो तो देविया से बढ़ कर दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता । सेन वंश में उत्पन्न यह व्यक्ति अपने मालिक के कारण संस्कृत तथा भाषा दोनों में पारंगत हो गया ।
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