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अध्याय ७-अनुवाद - ग्रंथ
मगध राजधानी को नाइक । जरासंध हो पितु सब लाइक । तासों सिगरी कही कहानी। कंत मरन की सोक समांनी ॥
पित्रे मगधराजाय जरासंधाय दुःखिते। वेदायांचनतः सर्वमात्मवैधव्य कारणम् ॥
सो सुनि बात दुष्प्रद भारी ।
स तदप्रियमाकर्ण्य शोक अमर्ष भर्यो पन धारी ।।
शोकामर्षयुतो नृपः। जादव बिनु धरनी को करनौ।
अयादवीं महीं कतु उद्यम करतु भयो सुष हरनौ ।।
चक्रे परममुद्यमम् ।। इसी प्रकार मूल से मिलता हुआ अनुवाद चलता है। अनुवाद में काव्यछटा और शब्द-सौंदर्य बराबर मिलता है । हाथियों का वर्णन देखिये
सजे पुज दंतीनि के अंग भारे । उतंगे जलद्दनि के रंग कारे ।।
श्रृंडनि के मद्धि सिंदूर सोहै । कनौंती सिरी कुभ पं चित्त मोहै ।। उपनिषदों का अनुवाद होना बहुत दुष्कर है, क्योंकि सूत्रों का अनुवाद एक प्रकार से असंभव सा ही है । संस्कृत में तो समासयुक्त पदावली के कारण 'गागर में सागर' की उक्ति चरितार्थ हो जाती है, किन्तु हिन्दी में ऐसा होना संभव नहीं । अतएव कलानिधि का लिखा हुआ जो 'उपनिषत् सार' नामक ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है उसे अनुवाद-ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता, उसमें तो एक प्रकार से सूत्रों की व्याख्या को गई है । इसीलिये हमने इस ग्रन्थ के उदाहरण 'गद्य-ग्रंथ' के अंतर्गत दिए हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि कलानिधि की इस व्याख्या का अनुवाद की दृष्टि से क्या मूल्य लगाया जाय । यद्यपि अनेक विद्वान् इस प्रकार की पुस्तकों को अनुवाद ही कहते हैं ; पंडित शुकदेव बिहारी मिश्र ने भी इसी प्रकार लिखा है'कलानिधि ने ब्रह्मसूत्र तत्तिरीय, मांडूक्य, केन , प्रश्नोपनिषद के अच्छे अनुवाद किये।" किन्तु हमें इस ग्रन्थ को अनुवाद कहने में संकोच होता है-इसे तो व्याख्या, विवेचन, स्पष्टीकरण अादि नाम दिये जा सकते हैं, अनुवाद नहीं ।
हितोपदेश' बहुत समय से प्रचलित रहा है । भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अन्य देशों की भाषाओं में भी इस ग्रन्थ के अनुवाद किये जा चुके हैं। इस ग्रन्थ को भारतीय नीति और प्राचार का प्रमाण-ग्रथ मानना चाहिये । मत्स्यप्रदेश में भी हितोपदेश के कई अनुवाद मिले । एक अनुवाद रामकवि कृत
१ पटना यूनि० लेक्चर्स 'इतिहास पर हिन्दी साहित्य का प्रभाव ।'
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