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अध्याय ७--अनुवाद-ग्रंथ
अश्वमेध पर्व की कथा दूसरी तरंग से प्रारम्भ होती है
जन्मेजय नृप सुनि चुक्यौ, निजकुल कथा अनूप । पारथ कृष्ण सहाय तें, जात्यो भारथ भूप । पुन्यश्लोकी धर्म सुत, तासु चरित्र पवित्र ।
सुनि कुरु नृप मुनि सों करयो, और प्रश्न विचित्र ।। प्रार्थना के श्लोकों का अनुवाद भी अच्छा हुआ है
तुम नर नारायन रूप स्वच्छ , मैं लषे भाग्य के वल प्रतच्छ ।
हे कमलनेन हे जग अधार , है तुम कौं मेरो नमस्कार ।। अन्त में फल इस प्रकार दिया हुआ है
यह अस्वमेध उत्तम जु पर्व , तोते में बनन कीन सर्व । याको सु स्रवन फल है सनाय , मै वरन्यौ सुनु तू सत्य भाइ । गोदान सहस को फल जु अाहि , पर्वहि जु सुने पावहि उमाहि ।। सुनिवेते अष्टादस पुरान । जा फल को पावत है प्रमान ।
श्रद्धा युत या पर्वहि सुनंत । ताही फल को पावत तुरंत ।। गीता के कई अनुवाद मिले । इन अनुवादों में संस्कृत के श्लोकों का क्रमबद्ध अनुवाद करने की चेष्टा की गई है । प्रथम अध्याय के दो तीन श्लोक देखिए-'
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, मिले युद्ध के साज ।
संजय मो सुत पांडवनि, कीने कैसे काज ।। मिलाइए
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।। १ पांडव सैना बहु लषै, दुर्योधन ढिग जाइ।
निजु प्राचार्य द्रोंन सों बोले असे भाइ ।। मिलाइए
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । प्राचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। पांडव सेना अति बड़ी, प्राचारज तू देषि । धष्टदुम्न तुव शिष्य नै, व्यूह रच्यो जु विसेषि ।।
' यह अनुवाद अधूरा ही मिला। परन्तु अनुवाद की दृष्टि से बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ, गीता
के अनुवादकों का पता नहीं लग सका, किन्तु भाषा, लिपि आदि को देखते हुए प्रतीत हुआ कि ये अनुवाद यहीं किये गये ।
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