________________
मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
२५१
इस पर्व के अंत में दी गई पंक्तियों से यह सिद्ध होता है कि इस कवि ने अश्वमेध पर्व से पहले के अन्य सभी पर्वों का अनुवाद किया था । कवि ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में लिखा है
'इमि पर्व चतुर्द
इस प्रकार हे राजेन्द्र !
इसके पश्चात् कवि कहता है
में सुभाइ । राजेंद्र दिए तुमको सुनाइ ॥
१४ पर्व सुना दिए हैं।
मैंने आपको
इससे भी यही पता लगता है कि बलवंत भूप की ग्राज्ञा को मान कर कवि रसानंद ने संस्कृत भाषा में लिखे चरित्र और कथाओंों को भाषा के माध्यम द्वारा सुनाया ।
१
"अब वासास्रम पर्व ' जु बिसेस । कहि हों सुनि चित दे कुरु नरेस || कुन्ती समेत गजपुर मभार । २ है भरतर्षभ पार्थव उदार ॥ एकादस वर्ष प्रमान थित । वहं बसे सु सुख संपति सहित || यह सकल चरित उत्तम महान बलवंत भूप प्राज्ञा प्रमान ॥ सुरवानी के अनुमान वेस 3 भाषा किय रस आनंद विसेस | '
इस पुस्तक के समाप्त होने का समय १८६६ वि० है । इससे पता लगता है कि इस पुस्तक का कार्य चार वर्ष में पूरा हुआ ।
Jain Education International
संवत् ठारै पै नवै नौ गुनों (१८६६ ) । कार्तिक की कृष्णा सु पंचमी तिथि गुनों । ससि वासर लषि उत्तम ससि की प्राप्ति है । कृष्ण कृपा ते भयो सु ग्रंथ समाप्त है ॥
हमें इस ग्रन्थरत्न की संवत् १९०३ की लिखी एक प्रति प्राप्त हुई थी ।
श्राश्रमवासिक पर्व नं० १५ ।
हस्तिनापुर में । 'घननाद', 'रिपुसूदन' 'दशकंधर' वाली तुलसी प्रणाली 'हस्तिनापुर' में भी लक्षित हो रही है ।
3 देववाणी संस्कृत में लिखे अनुसार । कवि की इस उक्ति से विदित होता है कि यह एक नूदित ग्रंथ है । कवि ने इस ग्रंथ को संग्राम रत्नाकर' कहा है जो 'महाभारत' के लिए बहुत उपयुक्त है । कवि ने अपने अनुवाद में मूल पुस्तक के 'अध्याय' को 'तरंग' कहा है । रत्नाकर में तरंगों का होना स्वाभाविक है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org