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मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
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लग सका फिर भी इसमें संदेह नहीं कि इस पुस्तक की रचना बलवंतसिंहजी के आश्रय में की गई -
सोहै बाग सुहामनी, ब्रज में परम रसाल । भोगौ बलमत लाडलौ, धारे रूप ही जाल ॥
दोहरी पाई दो चिड़ियों के छोटे चित्रों से लगाई गई हैं, जो लाल चिड़िया के से चित्र मालूम होते हैं ।
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जानो बलमंत स्यींघ लाल है जंग जीतवे कौ बीरा वीर कोउ किन श्रावै वीरा कीरा सम लागे मोय याही ते गरूर भरी वानी को दहार है || मीरा करौ ती अंग जम परौ सोरा खाउ, उर मैं ही नाम ही की चाह जोर मारे है । तीरा मन धीरा भली चोंच बनी हीरा सम चीरा है लालन के षीरा सम फार है ||
कवि का कहना है
अनूठौ
सम
बड़ौ :
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धार है ।
लालन के संग्राम की, बरनी कविन अनेक | मेल मिलाती मैं कही, यह प्रदवृत रस लेष || नौ रस की सुभ कथा, लालन मैं सरसाय । मैं सीखी कवितान पै, बरनी तिने सुनाय । कविजन सागर मधुर के, कंज रूप तुम अंग । भूलो ताय समारियो, धारै प्रेम प्रसंग ॥ पाली पाली जानकै टाल, कयौ सो हाल । और जोट हाजर भई, मुसिकाये महिपाल ॥
इस प्रकार लालों की अनेक जोटें एक के पश्चात् एक उपस्थित की जाती
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थीं और उन्हें लड़ाया जाता था । पुस्तक में लेखन की अनेक प्रशुद्धियां हैं । छोटे 'उ' की मात्रा पुराने ढंग से ही लगाई गई है । अनेक स्थानों में वर्तनी की शुद्धियां हैं। पुस्तक का आरम्भ इस प्रकार होता है
'श्री गणेसायनम - - भने नम । सुरज वर्नन ।' कवित्त
तेरी जो प्रकास ताकी सुंदर प्रकास गत, श्रावत ही अवनी में होत है प्रराम लाल । देवलोक दानव के जक्षन तँ किनर के नर के जितेक लोक मानत हैं चैन जाल ॥ घाम घाम धारा जात अधिक प्रराम काम, पूरन प्रकास पान पुन्यन के होत ढाल । एहो देव देव सुन ग्यान देव जत्क रूप, जागत ही जाको सब सोमत ही सोमैं हाल ॥
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