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'मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
'किया गया है ।"
'इहां चंडिका और दषनि वारी ग्रालंबन विभाव श्रौर प्रांतनि की चचौरवो उद्दीपन विभाव और देषन वारे के वचन अनुभाव और असुया संचारी भाव इनतं श्रानि स्थायी भाव व्यंगि तातै वीभत्स रस ।'
इसमें संदेह नहीं कि कवि द्वारा प्रयुक्त गद्य अर्थ बहुत ही स्पष्ट हो गया है । भाषा में भी उलझावट नहीं है । किन्तु वाक्य क्रियाहीन हैं । इसे हम यदि ! टिप्पणी के रूप में मान लें तो कोई हानि नहीं होती, क्योंकि इस गद्य का उद्देश्य भी यही है कि यदि किसी को कुछ संदेह हो तो बात स्पष्ट हो जाय ।
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काव्य-सिद्धान्त-निरूपण के प्रसिद्ध ग्रंथ " भाषाभूषण" की संपूर्ण टीका अलवर के महाराजा विनयसिंहजी ने की है । पुस्तक में अपना परिचय इस प्रकार दिया है
'जस जागत जसवंत्त वली, नृप भाषाभूषणा कौं रचत । • राजाधिराज वषतेस सुत, विनसिहं टीका करत ॥
- इस दोहे से प्रतीत होता है कि विनयसिंहजी उस समय तक सिंहासन पर नहीं बैठे थे । श्रतएव उनके द्वारा बनाई गई भाषाभूषण की इस टीका का -समय संवत् १८७१ से पहले होना चाहिए । टीका का एक नमूना देखिए
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-२३:३
"विघन हरन तुम हो सदा, गनपति होहु सहाय । विनती कर जोर करें, दीजें ग्रन्थ
बनाय ||
टीका
'हे गनपति तुम सदा विघन के हरन हारे हो । मेरी सहाय होहु, हाथ जोर तुम विनती करौं हौं । यह ग्रंथ संपूरन बनाय दीजै । प्रथम ग्रंथारंभ में इष्ट देव कौ मनाइये । तहां मंगलाचरन तीन प्रकार कौ होत है । वस्तु निर्देशात्मक, आशीर्वादात्मक,
नमस्कारात्मक
उदाहरण का छंद ये है
1
"
इतही प्रचंड रघुनंदन उदंडभुज, उतै दसकंठ बढ़ि आयो रुड डारि के । सोमनाथ कहै रन मंडयौ फर मंडल मैं. नाच्यो रुद्र श्रोणित सौं अंगनि पषारि के । मेद गूद चरबी की कीच मची मेवनी में - बीच बीच डोलें भूत भैरों मुंड धारि के । चाइन सौं चंडिका चबाति चंड मुंडन कौ दंतनि सौं प्रतनि चचोरे किलकारि के ||
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