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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
२३१
स्थिति || नाट्य के काव्य विषे विभाव अनुभाव संचारी भाव साधारणता करिकै प्रसिद्ध । लौकिक || निकर के प्रगट कीनों हुवौ । मेरे शत्रु के उदासीन के मेरे नही, सत्रु के नहीं उदासीन के नहीं । याही तें साधारण । जहां स्वीकारपरिहार नहीं सो साधारण । साधारण उपाय बलि करि के ततछिन उतपत्ति भयौ । श्रानन्दस्वरुप | विषयांतररहित । स्वप्रकास अमित जो भाव । स्व स्वरूप की सी नांही । न्यारो नहीं तो हू जीव ने विषय कोनी हुवी | विभावादिक की स्थिति जाको जीव ते प्रांनद वृति जाके प्राण । प्रयान कर न्याय करिके । अनुभव कीनों हुवौ प्रागारी फुरत सो । हृदय में धरत सौ। अंग की प्रागिति सौ और ज्ञान को छिपावत सौ । परब्रह्म अस्वारद को तजावत सौ |
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अलोकिक चमत्कार करें जो इत्यादि स्थाई भाव सो रस ।।
सो नव विधि
प्रश्न - - सांति कछु कैसें ।
उत्तर -- सांति काव्य मैं कहियत नाट्य मैं नहीं याते ॥
इस गद्य अवतरण में हम देखते हैं कि
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१. विचार ग्रहण में कुछ कठिनाई होती है, जिसका एक कारण अभिनवगुप्त के गहन विचारों का गुम्फित होना भी हो सकता है ।
२. कुछ शब्दों के रूप शुद्ध संस्कृत हैं
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तत्त्व, लक्षण, परिहार, आस्वाद, स्वरूप, विषयांतर इत्यादि ।
३. 'फुरत सौं', 'धरत सौं', 'आलिंगत सौ', 'छिपावत सौं', 'तजावत सौं' आदि से तुकबंदी की प्रणाली लक्षित होती है । यह प्रणाली बहुत समय तक चलती रही और पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय में ही इसका पूर्ण परिहार हुआ ।
'महाराजाधिराज वृजेन्द्र रणजीतसिंह कुमार श्री बलदेव सिंह हेतवे' श्री धरानंद कवीश कृत 'साहित्य-सार-संग्रह-चितामरिण' नामक ग्रंथ । इस पुस्तक कई प्रभाएँ हैं । यह पुस्तक अपूर्ण मिलती है । तीसरी प्रभा पर ही जहां 'ध्वनि' आदि का वर्णन चल रहा है, ग्रंथ ग्रधूरा रह जाता है।' इसमें 'वचनिका' नाम से गद्य दिया हुआ है ।
ๆ इस पुस्तक की केवल ३ प्रभाएँ ही उपलब्ध हो सकीं ।
१. पिंगलनिरूपण ।
२. काव्य प्रयोजन, कारन स्वरूपः सब्दार्थ विशेष निर्णय निरूपण ।
३. ध्वनि प्रसंग - २८७ छंद से आगे नहीं चलता । (शेष टिप्पणी पू. २३२ पर देखें)
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