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अध्याय ६ - गद्य-ग्रंथ
जहां इष्टदेव को वस्तु स्वरूप गुण इत्यादि वरनन कीजै सो वस्तुनिर्देशात्मक । सो वस्तु निर्देश तो सब ही जगै पावै । परन्तु वस्तु निर्देश में जय शब्दादि लिये होय तहां आशीर्वादात्मक । जैसे 'केसवदास निवास निधि' इहां आशीर्वादात्मक । 'नमस्कार करि जोरि कै कहै महाकविराय' इहां नमस्कारात्मक ।
मेरी भव बाधा हरौ...... होई ॥ टी० इहां केवल वस्तु निर्देशात्मक । इहां कर जोरवौ यह शब्द पायौ तातै इहां वस्तु निर्देश के अंतर्भूत नमस्कारात्मक मंगला
चरन है ॥ १॥" एक और उदाहरण
"सुकिया पति सौं पति कहै, परकीया उपपत्ति । वैसुक नायक की सदां, गनिका सौ हित रत्ति ॥
टीका सुकिया के पति सौं पति कहै है। परकिया के पति सौं उपपति कहै हैं-वेस्यां के पति सौं वैसक कहै है।॥ ८॥ अनुकूल १ दक्षन २ सठ ३ घृष्ट ४। धीरोदात्त १ धीरमृदु २ धीर उद्धत ३ धीर प्रशांत ४॥ यन सौ चौगुने कीये भेद ला भये (४४४) ॥ १६ ॥ फिर दिव्य १ अदिव्य २ दिव्यादिव्य ३॥ यन तीन (१६४३= ४८) भेदन सू सोले कू तिगुने कीने तब सोलेति । अठतालिस भेद भये ॥४८॥ उत्तम १ मध्यम २ अधम ३ यन तीन (४८४३-१४४) ते तिगूने कीये। अठतालीस कू । तब येक सो चवालिस भेद भये । पति १ उपपति २ वैसुक ३ तीन ये भेद मिलिके (१४४+३= १४७) येक सो सेतालिस भेद भये ॥ १४७ ॥"
अब नायिका के भेद भी देख लीजिए । इससे पता लगता है कि उस समय कितनी विस्तृत टीका होती थी। "मूल- पदमनि चित्रनि संषनी, अरु हस्तनी वषांनि । विविध नाइका भेद में, चारि जाति तिय जानि ।।
टीका पदमनि सो कहिये जाके अंक में कमल की सी सुगंध आवै । वस्त्र स्वेत उज्जवल पवित्र पहरवे की रुचि होय । देव पजन में रुचि होय । आहार थोडौ करै। कंदर्प थोरौ होय। कूच नितंब पीन होय । नासिका चंपकलि सी तिल प्रसून सी होय। और नेत्र मृग के से वा कमलदल से होय। चंद को आधो भाग सो भाल होय। और भृकुटी टेढ़ी कबान सी होय सूछम होय । सब अंग सुन्दर वन्यो होय । कर चरन की अंगुरी पतली होय । और करतल पगतल आरक्त होय । और ऊमर बड़ी होय तोहू बारै बरस की सी दीपै । और दांत छोटे होय सुधी पंगति होंय । केस माथे के सटकारे होय, सचकिन होय । और अनंग भूमि में रूमा न होय, और सुरत जल में पुष्प रस की सी सुगंध आवै और जाके अंग सुगंध के लोभ सौ भ्रमर मडरायो करै। पीक निगलती वरीयां पीक की लीक कंठ में होर दीषै। असी त्वचा झीनी होय । स्वसी की
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