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अध्याय ६- गद्य-ग्रन्थ
घ अकलनामे, सामान्य ज्ञान कराने वाली पुस्तकें । ड नागरी में लिखा हुआ उर्दू गद्य । ७. हिंदी-संस्कृत ग्रन्थों को टोका, अर्थ आदि के रूप में ।
८. प्राचीन काल के हुक्मनामे, संधिपत्र, खरीते अादि के रूप में संचित सामग्री। यह सामग्रो बहुत मूल्यवान होती थी और राजा तथा अन्य लोग इनका संग्रह सावधानी के साथ करते थे।
६. रुक्के, परवाने आदि जो कुछ लोगों के पास प्राज भी सुरक्षित हैं । ये किन्ही बातों के प्रमाण रूप में दिए जाते थे।
१०. अन्य गद्य के नमूने जो सामान्य व्यवहार की सामग्री हैं और जो किसी कारण विशेष से उपलब्ध हो जाते हैं, जैसे -पत्र आदि । उस समय की प्राप्त गद्य-सामग्री के आधार पर नीचे लिखे निष्कर्ष निकलते हैं
(अ) प्राप्त पत्रों के आधार पर मालूम होता है कि उस समय नागरी तथा फारसी दोनों लिपियों का प्रचार था। फारसी लिपि को प्रधानता होने पर भी नागरी को उपेक्षा नहीं थी। किन्हीं-किन्हीं पत्रों में फारसी और नागरी दोनों लिपियां पाई जाती हैं, यद्यपि भाषा फारसी है ।
(आ) उस समय हिजरी तथा विक्रमी दोनों संवत् चालू थे। उर्दू, फारसी के पत्र तथा ग्रंथों में भी विक्रम संवत् मिलता है । हिंदी को पुस्तकों में प्रायः विक्रम संवत् ही पाया जाता है। कुछ स्थानों में शक संवत् भी दिया गया है।
(इ) उस समय का गद्य व्रजभाषा से ही प्रभावित है। मत्स्य-प्रदेश में भी जहां बोलचाल की भाषा व्रज से भिन्न रही है, उपलब्ध गद्य का अधिकांश व्रजभाषा में ही है। हो सकता है उस समय साहित्यिक कार्य के लिए व्रजभाषा का हो प्रयोग किया जाता रहा हो। प्रायः देखने में आता है कि साहित्य की भाषा से बोलचाल की भाषा भिन्न रहती है, इसो नियम के अनुसार इस प्रदेश में भी बोलचाल की भाषा अन्य रहने पर भो लिखने में व्रजभाषा की अोर ही ध्यान रहता था। अलवर की कुछ रचनाओं में कभी-कभी अलवरियापन मिल जाता है--जैसे 'ण' का प्रयोग 'न' के स्थान में अथवा 'यह' के स्थान में 'याँ' का प्रयोग, अथवा 'क्या' के स्थान में 'कांई' आदि । किन्तु प्राप्त साहित्य के आधार पर इस प्रवृत्ति को नियम की अपेक्षा अपवाद ही माना जा सकता है ।
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