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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
सादर बोलें हित करें, देत प्रमोल रसाल । सोभ निरषि के कोकला, रीझत हैं छितिपाल || बोलत बुलबुल बोस्तां, सब पंछिन के बोल । सोभा तो सिरदार लषि, राषं समझ अमोल || पूरिन ते दुरबास । मुरंग न राषै पास ||
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अकड़ भरे षोदत लहैं, सोभ बड़े सिरदार तो,
अति कोमल तन चोकनें, नर में सोभ विसेषि । को नहि मोहे जगत में, बालन की छवि देषि ||
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तवा रूप तचई अवनि, सोभ तेज के धां । कहलाये सब जीव तो, पायो ग्रीषम नाम ॥
यह पुस्तक 'रसरासि रसिक किसोर गुरुदेव' की प्रेरणा से सोभनाथ ने लिखी । पुस्तक की रूप-रेखा और अवतरणों से स्पष्ट है कि इस पुस्तक में कवि द्वारा प्रकृति-वर्णन का उत्तम प्रयास किया गया है। पशु, पक्षी, लता, वृक्ष, सरोवर, कमल आदि प्रकृति- उपादानों को मानवी भावनाओं सहित प्रदर्शित किया गया है । निःसंदेह कवि का प्रयास बहुत ही प्रशंसनीय है । दो दोहे और देखिए -
दीरघ दरसें दरसनी, सोभ लिये किलकान | को ठहरै इह लाग तें, हग बलिष्ठ ए बांन ॥
सुद्ध प्रभा मन भावनी, भ्रमर अधिक दरसात । लषि कमलन सोभा सरस, प्रति ही नेन सिरात ॥
इस पुस्तक में सोभनाथजी ने अपने सम्बन्ध में बहुत-सी बातों का उल्लेख किया है । सबसे पहली बात तो यह है कि ये कवि महोदय बसुवा' के राजा
श्रित थे ।
पुस्तक निर्माण-काल
ब्राह्म प्रगट कनौजिया, कनवज मंडल बास । रह्यो ढुंढाहरि में अभे, बसुवा के नूप पास ||
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संवत अट्ठारह सतक, बरस और उनतीस । माघ शक्ल तेरसि भगो, पुष्य नक्षत्र लहीस ॥
बहुत समय तक बसुवा अलवर राज्य में रहा । एक समय ऐसा भी श्राया जब इसका आधा भाग अलवर में था और आधा जयपुर में
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