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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन यह पुस्तक ब्रजवासीदास की 'ब्रजविलास' शैली पर 'चौपाई' छंद में है। बालक कृष्ण की एक झांकी
छिनक चढ़े माता की कनियां। कबहुंक रज में लोटत सनियां ।।
कबहुंक बागी बन्यौ चिकनिया। कबहुंक सूथन कबहुँक तनियां ।। कृष्ण की एक शृगारमय लीला देखिये
घर में पैंठत चोर विलोक्यौ। द्वारौ आय बगरे को रोक्यो । अरबराइ हरि बाहर आये । जोवन बल ग्वालिन गह पाये ।। लै उर बीच प्रेम सों भेटी । काम तपन की बेदनि मेटी ॥ तिहीं ठौर हरि कीन्हीं चोरी । देषि ठगी सी व्रज की गोरी ॥ भेटि भुलावल रह्यौ न तन को। परसत छीन लियौ मन धन की ॥
कुचकुंकम उर लियौ लगाई। अधर सुधारस पियौ अधाई ।। एक दिन कृष्ण को पकड़ने के लिए एक युक्ति सोची गई। एक गोपी से उसके पति ने कहा कि तू कृष्ण को अपने पास बुला लेना, फिर
बेंचि किवार दीजियौ तारौ। भागि जाय नहि मेरो सारौ ।।
पकरि जाइ नीकै करि भारू। दूध दही को स्वाद निकारू । ___ और कृष्ण वहां पहुँच भी गये । किन्तु गोप को मां ने अपनी हड़बड़ाहट में उस कमरे का ताला लगा दिया जिसमें गोपी का पति कृष्ण को पकड़ने के लिए छिप रहा था। परिणाम यह हुअा कि गोप रात भर बन्द पड़ा रहा, दरवाजा खोला ही नहीं गया
यह लीला अति मधुर सुधासी।
कहत सुनत छूट जम फांसी ॥ यह ब्रजविलास वीरभद्र (जिसको फागलोला का वर्णन अन्यत्र किया जा चुका है) नाम के कवि का बनाया हुआ है और कवि कहता है कि
___कहत सुनत सुख ऊपजे, बाल हंसै मन मांहि । ___इस पुस्तक को सम्पर्ण करने की तिथि कवि ने स्वयं ही 'असाढ़ सुदी ६ संवत् १६११' बताई है। इसमें मन्देह नहीं कि इस पुस्तक का प्राकार बहुत छोटा है परन्तु इसमें ब्रजभाषा का वह स्वाभाविक रूप मिलता है जो भरतपुर में जनसाधारण के द्वारा बोला जाता है। अलंकारमुक्त इस कविता में मुहावरों और आडम्बररहित भाषा का लालित्य देखने को मिलता है। इसमें कृष्ण को
१ ऐसे प्रसंग श्रृंगार के अंतर्गत भी लिये जा सकते हैं। वास्तव में कृष्ण लीलानों में भक्ति
और शृंगार का अलग करना बहुत कठिन है।
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