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मत्स्य-प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन पूर्ण आस्था थी। उनकी कविताओं में भी उनकी भक्ति का यही रूप मिलता है। इनका देह-त्याग संवत् १८३६ कहा जाता है । वृन्दावन में इनकी बहुत श्रद्धा थी
नन्द के कुमार हौं तो कहीं बार बार , मोहि लीजिए उबार अोट आपनी में कीजिए। काम अरु क्रोध को काटो जम बेड़ा प्रभु , मांगो एक नाम मोहि भक्तिदान दीजिये । और को छुटायो साथ संतन को दीजे साथ , वृन्दावन निवास मोहि फेरिहू पतीजिये । कहै चर्णदास मेरि होय नहीं हांसी श्याम ,
कहूं मैं पुकारि मेरी श्रवन सुन लीजिये । उन्होंने कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन भी किया है और सर्वदा यही . कहते रहे
'वंशीवारे सों लगन मोरी लाग गई ।, इनके द्वारा लिखा कुछ उर्दू पद्य भी मिलता है
मुझे श्याम से मिलने की प्रारजू है , शबो रोज दिल में यही जुस्तजू है। नहीं भाती हैं मुझको बातें किसी की , सुनी जबसे उस यार की गुफ्तगू है। शराबे मुहब्बत पिगी जिसने यारब ,
बना दोनों जग में वही सुर्खरू है । चरणदासजी ने दानलीला आदि भी लिखी हैं। साथ ही अष्टांगयोग, अष्ट प्रकार के कुंभक, हठयोग, सतगुरु, सुमिरन का अंग, अनहद शब्द की महिमा, माया आदि का भी वर्णन निर्गुण संतों की तरह किया है। कुछ उदाहरण देखें१. भेदबानी
गुरु दूती बिन सखी पीव न देखो जाय । भावै तुम जप तप करि देखों भावं तीरथ न्हाय ॥ पांच सखी पच्चीस सहेली अति चातुर अधिकाय । मोहि अयानी जानि के मेरौ बालम लियौ लुकाय ।। वेद पुरान सबै जो ढूढ़े स्तुति इस्मृति सब धाया ।
पानि धर्म औ क्रियाकर्म में दीन्ह मोहि भरमाया ॥ २. करम-भरम का निषेध
सब जग मर्म भुलाना ऐसे । ऊंट की पूंछ से ऊंट बंध्यों ज्यौं भेड़चाल है जैसे ॥
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