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अध्याय ४ -- भक्ति-काव्य
जहा सकल जग मर मर जोहै, जहा हम जीवत जाई । बलिहारी सतगुर आपकी, असी ठोर बताई ।। जो कोही बस प्रागमन जाकी, येक मयेक कहा होई।
चरनदास हर कृष्ण सखी का, दूजा रूप न होई ।। अब चरणदासजी के 'स्याम' का दर्शन भी कर लीजिए जो कभी 'इजार', 'पटुका' और 'बागौ' पहन कर और कभी 'पाग', 'उपरैना' और 'धोवती' में आपको कृत्कृत्य कर रहे हैं। मैंने कृष्ण के कई मंदिरों में देखा कि अक्षय तृतीया के दिन भगवान का शृंगार चंदन से ही होता है। संभवत: उसो दिन का दर्शन इस पद में वर्णित हैं
[राग सारंग स्याम अंग बन्यौ चंदन को बागौ। चंदन इजार चंदन कौ, पटुका चंदन को सिर पागी। टेक रायबेलि की माला पहरै, बीचि सुरंग रंग लागौ ॥
राग सारंग चंदन पहिरै राजत श्री गोपाल । हरष भरे मुख वरष महा सुषमा, धुरी मूरति रसाल ॥ टेक सेत पाग सेत उपरैना, सेत धोवती' उज्जल मोतिन माल ।
चरनदास प्रभु ए छबि निरषत, व्रज जीवनि नंदलाल ।। चरणदासजी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली प्रतीत होता है। एक ओर जहाँ उन्हें सन्तमत का पूरा ज्ञान है वहाँ उनकी भक्ति-भावना भी उच्च कोटि की है पर साथ ही बाह्याडम्बर से उनकी बुद्धि मेल नहीं खाती। उनकी कृतियों से उनकी काव्य-प्रतिभा उच्च कोटि की सिद्ध होती है, उन्हें रागों का ज्ञान है, साथ ही सुन्दर पद-लालित्य का भी । व्यंगमय उक्तियां कहने में भो वे नहीं चूकते। उनकी भाषा वैसे तो व्रजभाषा है किन्तु खड़ी बोली का पुट भी स्थान-स्थान पर मिलता है, संभवतः दिल्ली प्रवास के कारण।
कुछ समय पूर्व इस प्रांत में एक प्रसिद्ध महात्मा लालदास ने भी निर्गुण की बातें कही थीं। इनके शिष्य लालदासी कहलाते हैं। अहमद नाम के एक अन्य कवि की कुछ कविताएँ मिलीं जिनसे उनकी विचारधारा भी निर्गुण के अन्तर्गत मालूम होती है
काहे भरमता डोलै रे योगी, तू काहे भरमता डोल। देह धोय मांजे क्या पावे, मन को क्यों ना धो लें ॥ ज्ञान की हाथ तराजू तेरे, फिर क्यों कमती तोले। अहमद होय कहा पछिताये, अब क्यों कांकर रोल ॥
१ 'धोती' के स्थान में व्रजमंडल और राजस्थान में आज भी 'धोवती' का प्रयोग होता है।
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