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मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देत
२१३ संख्या १२४ भरतपुर मध्य राजस्थान' मध्ये । श्रीरामजी ॥'
इस पुस्तक को प्रारम्भ करने की प्राज्ञा स्वयं ‘मति' ने 'मन' को दी थी। इसीलिए यह मन-मति का संदाद कहा गया है।
येक समै सृष सोवतें, सुमन रेंनि अवसेत ।
अकस्मात् काहू कही, अहै सुजान नरेस ।। और फिर मति एक साधु के रूप में पाकर बोली
'मधुर मंद बोले बिहसि, करि जदुवंस बखान ।' इसी प्रसंग ने कवि को लिखने की प्रेरणा दी। कवि ने अपना यह विचार अपने गुरु से भी निवेदन किया था और गुरुजी ने इस विचार को श्रेयस्कर बताया
नृपति सुजान सुजान समाना। और न कोई नृप नर नाना ।। और कहा
तिनमें जो यह बदन कुमारा । केवल कान्ह कला अवतारा ।। इस पुस्तक में सुजानसिंह जी के संपूर्ण जीवन और उनके शासनकाल का वर्णन है। पहले दो विलासों में वंश का वर्णन है और तीसरे में जन्मोत्सव का। इसके पश्चात् अगले दो विलासों में सूरजमल जो के प्रताप, वीरता और राज्य का वर्णन किया गया है। फिर गिरिवर (गोवर्द्धन) तथा किले आदि बनवाने का प्रकरण है । 'छह रितु', व्रज आदि के वर्णनोपरान्त विजय और विवाह का वर्णन किया गया है। यह विलास बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सूरजमलजी के लगभग सभी युद्धों का प्रसंग इस में आ जाता है । अन्तिम विलास में कवि सुजानसिंहजी के स्वर्ग पधारने तक का वर्णन कर देता है। इस प्रकार यह 'सुजान संवत्' सुजानसिंहजो के जोवन का पूरा वृतान्त है और उनके जीवन से सम्बन्धित लगभग सभी बातें आ गई हैं।
सुजानसिंहजी का दिल्ली, जयपुर आदि सभी जगह बहुत 'रौब' और 'दबदबा' था। इनके बल और प्रताप को सभी मानते थे
येक समे पामेर-पति, दिल्ली-पति के पास । सुधि कर सूरजमल्ल की, उर में अधिक हुलास ।
. प्राज से १५० वर्ष पूर्व तुहीरामजी ने भरतपुर को राजस्थान मध्ये' लिख कर एक
विचित्र भविष्यवाणी की। राजस्थान शब्द भी पुराना है। । प्रत्येक विलास के अन्त में लिखा है-'सुमन सुकवि रचितायां'
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