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अध्याय ५ - नीति, युद्ध इतिहास सम्बन्धी बुलवायौ जैसिंग जब, सिंहसुजान कुमार ।
त्यारी करि तबही गयो, जैपुरपति-दरबार ।। इस पुस्तक में सुजानसिंहजी के साहसिक कार्य, युद्ध, शासन, धार्मिक उत्सव, त्यौहार आदि के वर्णन हैं। इस ग्रन्थ से उस समय की राजनैतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थिति का सुन्दर विवरण मिलता है। इसमें अलवर वाले प्रतापसिंहजी का भी वर्णन मिलता है जब उन्हें डीग के पास ठहराया गया था। डीग के लिए लिखा है
अति दुर्घट बंका निकट, निपट कठिन कमठान ।
दीरघपुर गढ़ गढ़नि में, सबके गढ़त गुमान ।। इतना कहने में कोई भी अत्युक्ति नहीं कि यह पुस्तक उस समय का इतिहास है। सिनसिनी का निकास इस प्रकार बताया है -
'तीन जाति जादवन की, अंधक, विस्ती, भोज । तीन भांति तेई भये, ते फिर तिनही षेज ।।
पूर्व जन्म जे जादव विस्नी । तेई प्रगटे प्राइ सिनसिनी ॥ दूसरी इतिहास सम्बन्धी पुस्तक बारहठ शिवबख्शदान गजू की' लिखी अलवर राज्य का इतिहास है। यह इतिहास छन्दोबद्ध है पुस्तक दो भागों में है। इस पुस्तक के सम्बन्ध में शायद ही कुछ लोग जानते हों । मैंने इसे अलवर-नरेश की व्यक्तिगत लाइब्रेरी में खोज कर निकाला था। पुस्तक प्रामाणिक मालूम होती है किन्तु पुस्तक में ही कुछ ऐसे कारण हैं जिससे यह ग्रन्थ प्रकाश में नहीं लाया गया। यह पुस्तक अनेक प्रकार के छंदों में है-छंद-संख्या १४१६ है। कुछ फारसी के छंद भी हैं। एक सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार इस पुस्तक के प्रथम भाग में अलवर के राजाओं की वंश परम्परा महाराज रघु से दिखाई गई है और प्रथम भाग के अन्तिम अंश में
'राजगढ के राव प्रतापसिंघजी'
१ बारहठ कवि शिवबख्श (१९०१-५६ वि.) डिंगल के भी कवि थे। इन्होंने ब्रजभाषा में वृन्दावन शतक, और 'षड़ ऋतु' भी लिखे हैं । ये महाराज मंगलसिंहजी के साथ रहते थे । कहते हैं निम्न दो सोरठों पर महाराज ने इन्हें ५००) रु० का पारितोषिक दिया था
लड़वै लथ वत्थाह, झड़वें चख आतस झळाहं । हाकिल नव हत्थाह, मारे निज हत्था मंगल ।। रोसायल जम रूप, अजकायल साम्हा उड़े ।। भले विलाला भूप, मार सिंह डाला यथा ।
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