________________
१७४
श्रध्याय ५
—
नीति, युद्ध, इतिहास सम्बन्धी
Jain Education International
मति गजराज नांहि मांगने की लाज नांहि, कवि को समाज नांहि दीसं अरवन सी ॥ देह नहि षाह नांहि जोरत प्रघाय नांहि, देवीदास कहै वह वसु है वमनसी । घने दुख जोरी घने दुषनि सों राषतु है, यह जो पं संपदा तो वह जोक बनसी ॥
इस पुस्तक का नाम 'राजनीति' अवश्य है किन्तु वास्तव में इस पुस्तक की सामग्री जनसाधारण के लिये नीति का सुन्दर उपदेश है । कवि के अनुभव पर आधारित यह सामग्री बहुत ही मूल्यवान है । काव्य और वर्ण्य विषय की दृष्टि से यह एक उत्तम पुस्तक है । इसमें राजा प्रजा, धनी-निर्धन सभी के काम की बातें सुगम रीति हैं । दुःख इस बात का है कि मत्स्य प्रदेश में लिखी इतनी अनुभवपूर्ण पुस्तक का भी प्रचार नहीं हो पाया, जैसे गिरधर कविराय या घाघ का । यह पुस्तक अनेक प्रकार की सामग्री से सुसज्जित है और इसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिये कुछ न कुछ उपयोगो बात मिल सकती है ।
हितोपदेश के कई अनुवाद प्राप्त हुए । यह बात निर्विवाद है कि हितोपदेश नीति शास्त्र का एक अत्यन्त उत्कृष्ट ग्रन्थ है । मत्स्य में इस पुस्तक का अनुवाद करने वालों में देविया खवास और रामकवि के नाम उल्लेखनीय हैं। यद्यपि नीति की दृष्टि से यह पुस्तक जगत्-प्रसिद्ध है किन्तु मत्स्य प्रदेश के साहित्यकारों इसके अनुवाद किये हैं अतः इस प्रसंग को अनुवाद के अंतर्गत लेना अधिक युक्तिसंगत होगा ।
नीति संबंधी एक ग्रन्य ग्रन्थ 'विनयविलास' है जो महाराज विनयसिंह के राजकवि हरिनाथ का लिखा हुआ है । पुस्तक का समय, नाम, कविनाम, ग्राश्रयदाता के नाम इस प्रकार हैं
५ ७
| (१८७५)
पौष शुक्ल दसइनि समुझायौ ॥ सादर कवि हरिनाथ बनायौ । विनसिंह को सुजस सुहायौ ॥ परम कृपा कर यह फुरमाई । " कहिये राजनीति सुषदाई ।"
१ 'फरमाइये' के लिये श्राज तक 'फुरमाओ' का प्रयोग होता है। सवासी, डेढ़सौ वर्ष बीतने पर भी यह प्रयोग अभी तक उसी प्रकार है । 'फरमाइये' से तो आश्रो, जानो, खाओ, गा, आदि के सादृश्य पर 'फरमानो' बन गया परन्तु 'फुरमानो' में 'फ' उकारान्त कैसे हो गया । क्या 'सुनाओ' श्रादि से प्रभावित होकर ?
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org