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अध्याय ५ - नीति, युद्ध, इतिहास सम्बन्धी
बहुत बढाचढ़ा कर किया गया है
मुसल्ला जुरे सब हल्ला ददै औरल्ला को बहु गल्ला बजाइकै । यहल्ला की दाढी प्रो छल्ला कर सुपल्ला सवारै मुकल्ला उठाइकै ।। विनैसिंह प्रताप के तेज ही सौ मुल्ला नवाब भये अकुलाइकै ।
अल्ला करै बहु भल्ला वचत अरल्ला दये सब सल्ला घुडाइक ।। फरकि फरकि गिरि परत धाइ। कुइ चलत भाजि अरु लटपटाइ ।। कुइ चलत धार सोगित अनंत । कुइ दुहमि परे बोलत नवंत ।।
गोला गोली परत हैं, जो वर्षा के मेह । मानस की कह बात है, पंक्षी पंषन देत ।। दोऊ पोर अनि बनी फौजन की जुरी जहां , छुटत अराविन के गोला भय भीत के । उमड़ि उमड़ि आये घुमड़ि चहू ते वीर , छत्रिय सरूप धारि जानत सुभीत के । कहत षुसाल कवि विनयसिंह महाराज , प्रागे लरे सुभट सुहाये नित नीत के । बड़े बड़े दाढ़ीवारे सामुहे न ठाढ़े भये ,
गाढ़े लरे वीर मन बाढ़े जय जीत के ॥ इनकी कविता सामान्य श्रेणी की समझिये । इतिहास से पता लगता है कि यह एक छोटा सा मामला था जिसमें बलवंतसिंह ने इधर-उधर से सहायता प्राप्त कर राज्य पाने के लिए झगड़ा किया था। थोड़ी बहुत लड़ाई भी हुई और अन्त को अंग्रेजों ने बीच-बचाव करा कर राज्य का बंटवारा करा दिया था। कवि इस घटना को संधि हुया कहते हैं और इसे विनयसिंहजी की विजय के रूप में मानते हैं
सोहत बैठ मसंद पर, विनयसिंह महाराज ।
जैसे सुरपुर लोक में, राजतु है सुरराज ।। इस युद्ध में रामू षवास, ठाकुर अषयसिंह, बलदेव दीवान और कुवरमल्लजी ने राजा का साथ दिया था। यद्ध के समाप्त होने पर राजा की ओर से इन्हें सिरोपाव दिए गए.
सिरोपाव बहु देत अाज । यह विनय सिंह सुभ राजु साजु ।।
सब सिरोपाव ले के षवास । पहुंचि आय अलवर मवास ।। यद्यपि एक छोटा सा ही प्रसंग था किन्तु कवि ने इसे बढ़ा कर एक बड़ा युद्ध खड़ा कर दिया है। परिणाम भी राजो के विपरीत ही था किन्तु कवि ने उसे एक 'विजय' माना है। इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व
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