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और भी---
स् प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
वह वही बास वेस वनक बरनत बुसाल बलीपुर हूं धाई सुरलोकन सुहाई ग्रीक राजा विनसिंह छाई कीरति
पुस्तक रचने का कारण
कंपत दुर्जन दुरत सिंह सिंहनि संग छुट्टिय | वृक बराह विकराल बाघिनी छन तर तुट्टिय ॥ मद गयंद दलमलत सेस सीसन फन फुंकत । कहत बुसाल दिनपाल धरा भूचर हति हुंकत ॥ चढ़ते तुरंग वर पग्ग कर धोसा होत धुकार तब । वषतेस-नंद अवतंस मनि साजत सहज सिकार तब ॥
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चनाय बनी,
है ।
बिहारी चोक चहूँ ! तुम्हारी है ।।
संग्राम का हेतु इस प्रकार दिया है
बिनसिंह महाराज ने प्रग्या करी बुलाइ । कवि बुसाल रासो सुधरि करिये मन चित लाइ ||
बहुत प्रपंच रच्यो सबनि बली प्रभु करि हेत । मिलि जयकिसन नवाब ग्रह टामी फाटन नेत ॥ टामी फाटन नेत कियो सुष दोरव धरिकै राज विगारन काज लाज नेकी कहि करिकै ॥ पौरुष बल बहु करें ठौर ठौर मंत्र रहत । रातोस दुरि दुरि फिरत वक्त पूछत बहुत ॥ बलवंत सिंह' को दोस नहि, इन सबहुन को जानु । बुद्धि कौन की थिर रहत, संगति दोस प्रमान ॥
इस युद्ध में कुछ मुसलमानों ने भी भाग लिया था । इस लड़ाई का वर्णन
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' बख्तावरसिंहजी ने थाना ठिकाने के विनय सिंहजी को अपना उत्तराधिकारी चुना। उधर उनकी प्रेमिका से उत्पन्न बलवन्तसिंह अपने को राज्य का अधिकारी बताता था । बहुत झगड़ा हुआ और उसी का वर्णन इस 'विजय संग्राम' में दिया हुआ है । इस झगड़े का प्रन्त संवत् १८८३ में अंग्रेजों द्वारा कराया गया । जब राज्य का उत्तरी भाग बलवन्तसिंह को दे दिया गया तो उन्होंने तिजारे को अपनी राजधानी बनाया । १६ वर्ष राज्य करने के उपरान्त वे निस्सन्तान देवलोक सिधारे और तिजारा का राज्य फिर अलवर राज्य में मिला लिया गया। कवि ने इस सारे बखेड़े में बलवन्तसिंह को दोषी न मान कर उनके साथियों का दोष बताया है ।
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