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मत्स्य प्रदेश को हिन्दी साहित्य को देन
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रुचिर नासिका शुक लषि लाजै । श्रवन ज्ञान के विवर विराज ॥ अमल कपोल गोल अति नीके। ललित अधर सुखदायक जी के ॥
जब पुत्र जाने लगा तो माता की अवस्था देखिए
जानि समीप सुनीति सपूतहिं नैननि बेलि विनोद की बोई। ए शसिनाथ उदार तिही छिन एक बार विथा सब छोई ।। आई उमंगि तरंगनि तूल हुती छतिया जु विछोह विलोई ।
नीकै निहारि पसारि भुजा ध्रुव अंक में धारि पुकारि के रोई ॥ इस पुस्तक के प्रथम उल्लास में १०३ छंद, दूसरे में ११७, तीसरे और चौथे में क्रमशः ३५ और ३४ छंद हैं । पांचवें उल्लास में ५७ छंद हैं। इस पुस्तक की पत्र संख्या ८७ है । ध्रुव की कथा पौराणिक आधार पर लिखी गई है। इसमें मात्रिक तथा वणिक दोनों प्रकार के छंद पाये जाते हैं। इस पुस्तक की रचनातिथि कवि के शब्दों में ही इस प्रकार है
संवत् ठार से वरस, बारह (१८१२) जेठ सुकास । कृष्ण त्रोदसी बार भृगु, भयौ ग्रंथ परकास ।।
कवि ने पुस्तक के अन्त में ध्रुव तथा उनकी माता दोनों को वैकुण्ठलोक में प्रतिष्ठित करा दिया है
बैठि विमान चल्यौ सुरलोक को कंचन सी तन जोति विसेषी। पंथ के मध्य अचानक ही षटकी पूनि अंब दशा अनलेषी।। सो ससिनाथ सुनंद औ नंद ने जानि दई दरसाह सुमेषी। प्रानंद मान्यों तब ध्रव ने जब आगे समाइ विमान में देषी।।
कुछ स्फुट कविता प्रार्थना सम्बन्धी भी मिली। जैसे- गंगा की स्तुति, शिवजी की स्तुति । इनके अतिरिक्त जुगल कवि का लिखा एक 'करुणापच्चीसा'' भी
१ वैसे इस पुस्तक का नाम 'सत्यनारायण करुण पचीसी' है । 'करुणापच्चीसा' मानने का कारण यह दोहा है
हृदय प्राइ कवि जुगल के, उपजी भक्ति सुदेष ।
करुणा पच्चीसा लिष्यो, सत्यनारायण वेस ॥ इति श्री सत्यनारायण भक्त्तिमय करुणापच्चीसा संपूर्णम् ।
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