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कवित्त में स्पष्टीकरण -
मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
गोपियों की अवस्था देखिए
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षेप भरि लाये लादे डोलत पुराननि हीं जिनस प्रथाही तामें दाम को लगाय है । ज्ञान ही की गोंभ तुम आन के उतारी यहाँ अबला बसत तिन्हें कैसे छवि पाय है ॥ निगुन करेंगी कहा गुननि रही हैं भरि प्यारे रसनायक के प्रेमहि पुराय हैं । भोरी लषि गोपीन को ठगत कहा है जाउ, जोग की ठगोरी ऊधौ ब्रज न विकाय है ॥ १
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एक बेर आयें बजे सुंदर स्याम सुजान । सुरत समें न रुसाई हों मोहि तिहारी प्रान ॥ कवित्त
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एक बेर आय ब्रज विरही जिवाय लीजे पाछे मन मानेंह सोब कीजै सचुपाय हों । मान न करौंगी रसनायक धरोंगी धीर, गुन ही गनोंगी पै न श्रोगुन मनाय हों ॥। पीवत अघर देत देहू न कुच ही धरो न अंग हरुवं सोहैं है हजार मोहि नंद के सुरत समय न हा हा रावरे
उस समय की फूलों से गुथी वेरणी का अब क्या हाल है
सुमन सनेही स्याम ने बैनी गुहे बनाय । ते छूटत मधुकर मनौ फूलझरी लगिजाय ॥ कवित्त
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कठिन जुग छुवाय हों ।
कुमार अब रिसायही ॥
सूर: 'जोग ठगोरी ऊधो ब्रज न बिकाई है ।"
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कवरी कलीनि जे पे उन ही गुहीही तेब, सूल सी सलत हिये दारुन भरतु हैं । चुनि चुनि कुसुम जे सेजही विछाये तंब सेल लों लगत हाय भारिही धरतु हैं ॥ रंग नये राते रसनायक अधिक ताते छूटि छूटि पोधन ते छिति ही भरतु हैं । माधो बिन ये ही बन बगरि अनल ऊधो फूल न गिरत फूलभरी सी झरतु हैं ॥
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